आकर्षण वाली जगह का एक मापदण्ड़ हम अपने साथ लिए चलते हैं जिसे हम कभी, "टाईम पास है","वक्त गुज़ार रहा हूँ "
ऐसे शब्दों के नीचे दबाकर रख देते हैं। जो हमारी एक जरुरत बन जाती है। जब कोई जगह हमें अपनी ओर आकर्षित करती है तो कभी हम उसे स्वीकार कर लेते हैं या नकारकर कोहरे की धुंध में खो जाने के लिए छोड़ देते हैं।
पर हो रहे आकर्षण को हम कैसे अपने आप में समा लेते हैं यह एक सवाल जवाब के साथ बन जाता है जिसे हम अपने ही शब्दों मे खेल जाते हैं।
हम रोजर्मरा की रुटीन में कितने ही आकर्षणों को अपनाते हैं?
यह भी हमारा ही स्वार्थ तय करता है। एक जगह हमें दूसरी जगह से आकर्षित होने की प्रेणना देती है, जिसे हम साथ लिए और आकर्षणों को खोजते रहते हैं।
ऐसे ही मेरा एक दोस्त जो अकसर दूसरे घरों की सज़ावट को इक्ठठा कर अपनी काल्पनिक घर की तैयारी में लगा रहता है। वो अपने घर का आकर्षण दिखाने के लिए चीज़ों को देखता और पसन्द करता है।
*उसके लिए अपना और उसका आकर्षण क्या मायने रखता है?
*पर अकसर लड़ाइ होती है कि जगह की हमसे मांग क्या है?
*अगर हमें कोइ चीज़ पसन्द आती है तो क्या वो हमारा आकर्षण है?
*या किसी जगह में समय देना वो हमारा आकर्षण है?
*जगह मांगती क्या है? आपका वक्त या आपकी पसन्द ?
*आपके देखने के तरीके को झुटलाना या बनावटी आकर्षण को आपकी नज़रों में कैसे उतारा जाऐ उसकी एक समझ?
कभी लगता है कि किसी जगह में हो रही क्रिया जो काफी निम्न गति में अपने आकर्षण को एक व्यावस्थित रुप में लाने की कोशिश में लागी दिखाई देती है, जो कभी खत्म नहीं होती।
इस क्रिया में चीज़ें जुड़ती रहती हैं जो उस जगह के आकर्षण का केन्द्र बिन्दू बन उभरती है।
मनोज.
घूमती समझ.
Friday, May 29, 2009
1 comments:
Apka akarshan kendra kya hai.
Kya ham jaan sakte hai?
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