वहां से होकर गुज़र जाने वाले क्या समझते हैं उस जगह को, वहा बैठे लोगों को, उनकी सोच से परे ये जगह आपके सामने हमेशा वेलकम ही बोलती नज़र आती है। कभी वहां की आँखों से तो कभी वहां की बातों से...
इस जगह से कभी गालियाँ बाहर आती है तो कभी उनका बचपन या बचपना, कभी किसी का बड़ा होना बाहर आता है तो कभी किसी का सीख का गुरूर....
सबके बनने या बढ़ने का दायेरा चाहे कितना ही क्यों न हो वो निकलता है उसी गेट से जहां से वो जगह मे शामिल हुआ था।
हर कोई अपने लिए उस चार दिवारी में कुछ न कुछ तैयार ही करता मिलता और जब बाहर आता लोगों या महफिलों में उतरता तो एक पहचान, नाम या अंदाज़ मे, जिससे कभी उसे नवाज़ा भी जाता तो कभी चिड़ाया भी।
कभी वही नाम और अंदाज़ उसकी कमाई का ज़रिया बन जाता तो कभी मज़ाक की शक़्ल मे उसे खड़ा कर उसके नाम और अंदाज़ से मज़ाकिया माहौल तैयार किया जाता।
बनने वाला भी उन्ही में से कोई एक होता और बनाने वाला भी।
सैफू.
बनाने से बनने तक...
Tuesday, June 02, 2009
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