पुरानी दिल्ली की रंग वाली गली में।
यहां लोगों के आने के कई तरीके है मतलब सबके अपने-अपने मतलब जुड़े हैं इस जगह से। यहां कोई खेलने आता है तो कोई देखने, कोई मज़ाक करने तो कोई खेल की भावना में मगन चैलेन्ज देता हुआ पर जब यहां की भीड़ अपने रंग में होती है तो पुराने खिलाड़ियों की वही मण्डलियां जो ऊच-नीच को शर्तो के बल पर तय करतीं हैं। जो कहती हैं
"है दम तो जीत के दिखा पर शर्त लगा कर" उस वक्त खेल पर खिलाड़ियों का पैसा भी लगा होता है और इज्ज़त भी, इज्ज़त तो दूसरी निकली आवाज़ से वापस भी आ सकती है पर यहां पैसों का जेब बदलना चलता रहता है। जिसमें लगता है कि यहां हर कोई अपना रुतबा तय करने की होड़ में है, ऐसे में ये देखते चहरे कि "कौन जीतेगा" बड़े उत्साहित रहते हैं कि किसने, कब, क्या गलती की और वो अगली टन आने पर क्या कर सकता है, ये वहां खड़े बाकी लोग अनुमान लगाते और कुछ-कुछ बोलते नज़र आते।
यहां शर्तों के दाम 200 से 500 तक का सफर तय कर लेते हैं सिर्फ अपने अनुभव की बहस पर। बिना बहस तो कोई यहां 100-50 की भी शर्त नही लगाता।
पर बिना शर्तों में हार-जीत का मज़ा लेते कई लोग जगह में खेल देखने और खेलने का आकर्षण बन जाते हैं शुरुआती या कभी-कबार दिखते चहरों के लिए।
...सैफू...
" भाई ताब का कैरम क्लब "
Tuesday, February 24, 2009
Labels: देखा-देखी , महफिलों के बीच से...
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