माहौल और समाज हमे हमेशा एक धुंध में रखता है जिसकी वजह से हम कभी कुछ नहीं देख पाते इसी में समय अपने आप को बदल इतिहास लिखता चला आ रहा है। वो इतिहास जो अभी के समय हमारे साथ है और बाद में किसी कागज़ के पन्ने का एक हिस्सा सा लगता है।
उसी मे बंधे लोग बाद या आने वाले इतिहास की रचना किये बिना ही फैसले लेने और समझने की एक अनमोल गाथा को लोगों को समझाते आ रहे हैं।
अपने अनुभव और अपनी समझ में बनाए एक आकार को लोगों के आगे पेश करके वो रचनात्मक तरीके से जी रहे हैं।
वो पेश करना आगे चल समाज की आवाज़ या समाज का ही एक रुप ले लोगों को अपनी बोलियों में इनकी परिभाषाएँ देता चला आ रहा है।
चाय की दुकान जिसकी हालत से मालूम होता है कि वो काफी पुरानी है पर उस पुरानेपन को सफेदी की चमक से अभी भी चम्का रखा है।
चाय की दुकान जिसमें चाय बनाने का एक बड़ा सा ठिया, जिस पर तीन बड़ी केतलियाँ जिसमें हमेशा चाय पत्ती का पानी उबलता रहता, कप और गिलास की एक लम्बी लाईन तकरीबन पन्द्रह जोड़े और बीच में एक नीली मटमेली शर्ट पहने एक ढ़ाड़ी वाला आदमी जो हमेशा ऑडर की चाय बनाकर देता।
उसी के बराबर में एक सफेद कुर्ता-पजामा पहने, सर पर टोपी लागाए हाथ में अखबार लिए कुर्सी पर बैठा आदमी जो सबके पैसे काटता है।
दो लोग और जो चाय को सर्व करने का काम करते हैं। जो तकरीबन एक बारह साल का लड़का और एक पच्चीस साल का आदमी है।
यहां लकड़ी की छ: टेबल है और बारह बेंच। हर एक टेबल पर 4 लोग आ जाते हैं। एक कोका-कोला की फ्रिज़ जो अब वक्त़ के हालात के साथ अपना रहन-सहन बदल चुकी है, जिसमें अब कप-गिलास के सेट वगैरह ही रखे जाते हैं।
उसी के बराबर में दूसरी टेबल पर बैठी एक औरत जो उस चाय की पुरानी दुकान में नई सी लग रही है। उसने नीला लाईट सुट पहन रखा है, रंग सांवला, चेहरा थोड़ा लम्बा, काली और छोटी आँखें, होटों पर सुर्ख गुलाबी रंग की लिप्सटिक, दांत गुटके खाकर पीले कर चुकी वो औरत आज समाज की नज़रों से लड़ रही है।
कोई उससे कुछ कहता नहीं पर हर कोई उसे आँखों-आँखों में नग़्न कर बैठा है।
और वो सब बातों से अन्जान न होते हुए भी अपनी चाय में मस्त है।
...मनोज...
माहौल और समाज
Friday, February 06, 2009
Labels: महफिलों के बीच से... , संवाद
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