कुछ जगहें जो अपनी और दूसरों की संतुष्टि को पूर्ण करने की इच्छा ज़ाहिर करती रहती हैं। कुछ अनमोल ठिकाने जो बहुमूल्य कामों से भी ज़्यादा महत्वपूर्ण लगने लगते हैं। उसी में बैठे लोग अपनी खांचेदार ज़िन्दगी को जोड़ते जाते हैं, अपनी जरुरतों, कामों और महफिलों को जमाने में इच्छुक लोग घूमते, बनाते चलते हैं अपनी मनचाही जगाहों को।
यह लोग वो होते हैं जो छाल नुमा ज़िन्दगी को जीते जाते हैं और हर वाद-अपवाद को अपने शरीर से दूर कर नई छाल की बुनाई में लग जाते हैं।
फिर शुरु होती है समुह गढ़ने की एक अनुठी प्रतिक्रिया। जिसमें अवज्ञा और अनादर को दूर हटाकर अपने बनाए कस्बों मे विलीन होने की शक्ति होती हैं। वो कस्बें जो अन्नत में खत्म होते और फिर अपने प्रतिबिन्द की तरह ही बनते जाते हैं।
इसमे प्रकाश और अंधकार दोनों ही इन कस्बों को बनाने और बिगाड़ने में निपुर्ण है।
प्रकाश जो कि महफिल की रोनक में सब दिखाता है, सच हो या झूट। पर अंधकार अपनी चपेट में सब को लेकर विलीन होने की कंगार पर नज़र आता हैं।
इसमे सर्वदा अपना पाठ लिए घूम रहा हैं, जो टाईम-टेबल के हिसाब से आपको अपनी रुटीन में घूमाता रहता है। वो नवीन इच्छाओं को गाठ-व-गाठ बांधकर एक जालीदार ढ़ांचा तैयार करता है।
उसे आप ओढ़ कुछ हदतक लोगों की छायादार वाणी से बच पाते हो। मगर आप अंजान नहीं हो, क्योंकि जालीदार ढ़ांचे की वजह से आप अपने कुल में हो रहे संवाद को परखते और जोड़ते चलते हो...
...मनोज...
बनने- बनाने के बीच में...
Thursday, March 05, 2009
Labels: महफिलों के बीच से... , संवाद
0 comments:
Post a Comment