वो हमारी कालोनी में ही मंदिर के पास बने एक छोटे से कमरे में रहता है। उसका वो छोटा सा कमरा किसी इलेक्ट्रॉनिक कबाड़खाने से कम नहीं। उसने अपने कमरे में अपना एक कोना बना रखा है। चारदीवारी के बीच हर एक कोने में फैले पुराने रेडियो, घड़ियाँ, घंटे, अलार्म, कैमरे, पुराने वायर - कुछ ठीक तो कुछ ख़राब, जगह-जगह फैले खुले रेडियो के पुर्ज़े और उसके काम को अंजाम देने वाला हर वो सामान खुला पड़ा था, बिना किसी बॉक्स के।
उसकी इस चारदीवारी में कोई आलमारी नहीं है, बस एक टेबल है जो कोने में न होकर भी कोने में है। उस पर रखा था एक14 इंची टी.वी., जिसकी बंद मौजूदगी से मेरे दिमाग में यही चल रहा था कि "क्या ये टी.वी. ठीक होगा?" पर बात तो उस शख़्स की है जो 5फुट4-5 इंच का होगा। आँखों में हमेशा मेहनती नमी और कपड़े ज़्यादातर डार्क कलर के, चेहरा गोल और हाथों में ग्रीस जैसा कालापन - जो ये एहसास दिलाता है कि बन्दा मेहनती है।
वही कमरा उसके रहने की जगह है और वही खाने-पकाने की भी। वही उसका कारखाना है और वही चारदीवारी उसका माल इकठ्ठा करने का गोदाम।
वो हमेशा अपने कमरे में अकेला या दुकेला बैठा नज़र आता, कुछ न कुछ करता हुआ।
उसकी उम्र तो मुझे मालूम नहीं पर होगी यही कोई 30 के आस-पास की। वो अकेला ही रहता है। पता नहीं उसके माँ-बाप इस दुनिया में हैं भी या नहीं। आज तक मैंने उसे सिर्फ़ काम करते ही देखा है। कभी-कभार खाली दिखता है तो इतना खुश दिखता है मानो उसकी कोई लॉटरी लग गई हो। कभी उससे पूछने की हिम्मत नहीं हुई कि "भाई क्या हालचाल है?"
अक्सर वो बाहर नहीं दिखता। हाँ, कभी-कभी चाय पीने ज़रूर निकलता है। ऐसे में उससे मुलाक़ात होना मुश्किल सा था। पर कुछ वक़्त पहले उससे हुई एक मुलाक़ात ने मेरे कई सवालों की गुत्थी सुलझा दी, मसलन वो कितने समय से इस काम में अपने पैर जमाए हुए है? कबाड़ चुनने-खरीदने की नज़र उसने कितने समय में बनाई होगी? पुराना आलार्म कितने में खरीदता-बेचता होगा?
उसके कबाड़ को देखकर इस तरह के ढेरों सवाल मन में उठते थे पर एक सवाल का जवाब वो हर सण्डे कालोनी को देकर निकलता है कि उस कबाड़ का वो करता क्या है? दीवार घड़ियाँ, नये-पुराने रेडियो, ठीक चलती हुई हाथ घड़ियाँ, यहां तक कि वो कभी-कभी टी.वी. भी लेकर निकलता है। वो इतना सामान कबाड़ से कैसे ठीक कर लेता है?
सच में उसकी मेहनत या कहें उसके दिमाग का खेल है। वो जैसे ही एक बोरे में सारा सामान कंधे पर लादे कई गलियों से गुज़रता है, रास्ते में मिलने वाला शख़्स पूछने से नहीं चूकता-"आज कोई बढ़िया अलार्म है?”, “कोई अच्छी सी घड़ी है?”, "यार बोरा उतार, शायद कोई बढ़िया रेडियो मिल जाये?”
ऐसी लाइनों से होकर गुज़रता वो कई बार बोरे को कंधे से ऊपर -नीचे, उतारता-चढ़ाता, बाहर तक पहुँचता और किसी रिक्शे की ताक में खड़ा हो जाता।
जैसे ही कोई रिक्शा रुकता तो वो बोलता, "भाई चलना है इतवार बाज़ार"
...सैफ़ू...
नज़रों से...
Wednesday, February 11, 2009
Labels: देखा-देखी , महफिलों के बीच से...
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