हर किसी माहौल में मिलावटी दुनिया की कल्पना करना और अपने आपसी सुझावों को सुलझाने की एक क्रिया जिसकी मौजूदगी हर बार, बार-बार महसूस होती है इस जगह में। हर कोई लड़ता, भागता, सिमटता नज़र आता है। अंकुरों की फुटकान के साथ जन्म लेते हैं निर्णय जिसे पनपने की एक जगह के रूप में संजोए रखने की कोशिश करती है यह जगह। कितनी जगहों के नेटवर्क को अपनी आपसी बातों में छोड़ जाते लोग, कुछ पाते कुछ खोते लोग, कभी समाचार केंद्र बन कर उभरते, कभी बातों-बातों में मदरसे की तालीम देते, कभी आपके और समाज के बनाए नियमों से लड़ते तो कभी सब आँखें मींच कर छोड़ देते समय पर और इन्तज़ार करते समय कटने का।
क़्लब, जिसकी लम्बाई-चौड़ाई लोगों के आगमन से सिमट सी गई है। दो बड़े कैरम से संजोया हुआ यह क़्लब 20 लोगों को अपने भीतर समेटने की क्षमता के साथ वहाँ अपना मुकाम जमाए खड़ा है।
रहीस नाम से जाना जाने वाला शख़्स चैम्प के ओहदे को समेट वहाँ अपनी मौज़ूदगी को रोज़मर्रा में बरकरार रख किसी के सामने खेलने बैठा है। जब उसका स्ट्राइकर गोटी से टकराता है तो गोटी रॉकेट की तरह अपना रास्ता बनाते हुए पॉकेट में चली जाती है। इसीलिए उसे रहीस रॉकेट के नाम से भी जाना जाता है।
हर मुलाक़ात में मेहमान और मेज़बान की भूमिका को निभाने की रीत छोड़ कर रहीस भाई अपने दोस्तों की मण्डली को महकाने और चमकाने का सारा बंदोबस्त अपनी दमदार आवाज़ के साथ तैयार कर इन रिश्तों की गाँठों को खोलते नज़र आते हैं। बड़ी आँखों के साथ खिलाड़ियों के जज़्बातों के साथ खेलने के अनुभव के कारण कभी तो हार जाते हैं तो कभी जीत कर बातों की लड़ियों को इकठ्ठा करके हारने वाले को जला-जला के भून डालते हैं।
ऐसी ही बातें जो बकवास या छोड़ू हैं वे इन्हें यहाँ का बकवासबाज़ी का बादशाह बनाए रखती हैं। इनका ज़ोरदार सलाम करने का अंदाज़ पूरे क़्लब का माहौल बदल देता है। ये अक्सर कुछ ऐसी बातें कहते रहते हैं जिसका किसी को पाता नहीं होता। इनका कहना है कि ये 17 साल की उम्र में दिल्ली चैम्प का ख़िताब हासिल कर चुके हैं, लेकिन इनकी छवि को देखकर तो नहीं लगता कि इन्होंने कभी चैम्प के ओहदे को स्वीकारा है पर खेल और खेल में निशानेबाज़ी इनको वहाँ का चैम्प बनाए रखती है। इनकी अदाएँ लोगों को सर फोड़ने और विवश होने पर मज़बूर कर देती हैं। लोगों का इनकी बातों को सुन हँस-हँसकर पेट में दर्द हो जाता है।
इस हल्ला-गुल्ला वाले माहौल में एक समय ऐसा भी आता है जिसमें सबकुछ शांत हो जाता है। वो मग़रिब की अज़ान का वक़्त होता है जिसमें सभी लोग चुप हो जाते हैं। गेम खेलना और पंखा बन्द कर दिया जाता है। वहाँ बैठे चहरे एक-दूसरे के चहरे के चुप होने के इंतज़ार में लगे दिखाई देते हैं।
...मनोज...
" रहीस रॉकेट "
Monday, February 16, 2009
Labels: महफिलों के बीच से... , संवाद
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