सफ़र पटियाली ,

आस-पास का माहौल...


अकसर मैं अपना कुछ समय पटियाली चौराहे की चाय की दुकान पर बैठकर गुज़ारता हूँ और हमेशा की तरह वो समय रात का ही होता है 6 से 8 के बीच का जिसमे में खुद को लोगों के बीच रख पाने का समय निकाल लेता हू एसे मे तरह-तरह के लोगों से और उनके अपनी जगह को देखने के नज़रियों से मैं मुखातिब होता रहता हूँ जिससे मुझे जगह में कब, कहाँ और कैसे पैश आना है ये समझ बनती रहती है हर किसी की बात में एक नई सीख और सलाह का एतराम करना बखुबी दिमाग में बैठ जाता है और हँसने-हँसाने के साथ-साथ जगह से जुड़े किस्से और पहेलियाँ सुनने को मिलती है, एसा लगता है जैसे यहां का माहौल मुझे खुद के साथ जोड़ने की कोशिश कर रहा हो। चाय की दुकान का माहौल यहां के सबसे भरे हुए माहौल मे से एक है जहां तरह-तरह के लोग अपनी डेरी जमा लेते है रात के समय मे चाय की दुकान पर ही सबसे ज़्यादा रोनक देखने को मिलती है सबसे ज़्यादा रोनक का मतलब दुकान के बाहर लटका एक बेटरी से चलने वाला बल्ब जो और कही देखने को नही मिलता।


यहां रात भी तो जल्दी हो जाती है सिर्फ 7 बजे ही अंधेरा घर, गलियों, चौराहों पर अपना कब्ज़ा कर लेता है और लोग अंधेरे से चहरा छुपाए अपने-अपने घरों मे ही रहते है। जरूरत मंदो का घरों से बाहर निकलना मुनासिब है जिससे कि रात मे कोई चलता हुए दिखे तो दहशत का साया मन मे उतर आता है एसे मे या तो उलटे पैरो भागने का मन करता है या फिर अपने मन को हाथों की मुठ्ठियों मे दबाए- दुआ या राम-राम जपने का समय करीब आ जाता है।


चाय की दुकान ठीक उस जगह है जहां बसों के रुकने का ठिकाना है बस आती है रुकती है और 5 मिनट मे निकल जाती है उसके बाद घंटों का इंतज़ार क्योंकि यहां सफर की बहुत मारा-मारी है दिन में लोग यहां चलने वाली जीप गाड़ियों का सहारा लेकर अपने-अपने ठिकानों तक पहुच जाते हैं, जिसमे बहुत दिक्कत सहनी पड़ती है। यहां के अड्डे पर जीप गाड़ियां नम्बर से चलती हैं।


हर एक गाड़ी का नम्बर आता है और हर नम्बर के लिए गाड़ी को घंटो खड़ा रहना पड़ता है और जब उनका नम्बर आता है तो वो दिन की दिहाड़ी बनाने के लिए अपनी गाड़ी फुल करके चलते हैं और फुल ही नही बल्की ‌‌‌‍‌ओवर लोड करके चलते हैं। जीप के मिताबिक उसमे ज़्यादा से ज़्यादा 8 सवारी और एक ड्राइवर बैठ सकता है लेकिन यहां की जीप में जब तक 18 से 20 सवारी चड़ नही जाती वो आगे नही बढ़ती क्योंकि यहां बैठकर सफर करने का नियम नही है यहां फंसकर, खिसककर, लटककर छतों पर चड़कर सफर करने का नियम लागू है। एसा नही है कि इस सफर से लोग सहमत हैं, यहां आए दिन खिसयाते लोग ड्राइवर पर चड़ जाते है लेकिन ड्राइवर भी अपनी लाचारी सुना कर इस बहस से कट जाता है ( भाई गाड़ी चलेगी लेकिन जब तक हिसाब नही बनेगा कैसे चलाऊ, डिज़ल के पैसे, रोड के ठेके के पैसे और अपनी दिहाड़ी जब तक नही बनेगी मैं गाड़ी चलाकर क्या करूंगा, अगर किसी को जल्दी हो रही हो तो वो उतर सकता है)


यहां सफर तय करने के लिए इंतज़ार करना बैकार है क्योंकि यही एक मात्र साधन है 15-16 कि.मि का रास्ता तय करने का। अकसर लोग किलस कर उतर जाते हैं और आती-जाती गाड़ियों को हाथ देकर रोकने की कोशिश करते हैं कोई ट्रक-टेम्पों दिख जाता है तो उस पर जैसे-तैसे चड़ने का इरादा बना लेते हैं क्योंकि यहा कोई भी गाड़ी रुकने को तैय्यार नही होती क्योंकि उन्हें मालूम होता है कि ये सवारी इस ठेके की है यहां गाड़ी रोकी तो ठेके के मालिक से हातापाई तक हो सकती है।


एसे में सवारी के पास कोई और रास्ता नही बचता और घिच-पिच करती इस जीप में ही सफर करना पड़ता है। मेरे साथ ये रोज़ का किस्सा है सुबह जीप की छत पर बैठकर ओफिस पहुचना और रात को टाइम से बस को पकड़ना वरना आने का कोई साधन नही है क्योंकि रात मे कोई जीप या ट्रक-टेम्पों नही चलते। पटियाली चौक पर बसें रुकने का समय – सुबह 9 बजे लोहारी खेड़ा वाली, दोपहर 2 बजे अली गंज वाली, शाम 7.30 बजे शिवारा वाली,और रात 8.30 बजे भरगैन वाली आखरी, ये सब दिशाए पटियाली से होकर गुज़रती हैं। मुझे शाम वाली गाड़ी से निकलना होता है क्योंकि उसके बाद पटियाली में वक़्त गुज़ारना बहुत मुश्किल है सड़कों पर लोग नही दिखते, बाज़ार मे भीड़ नही दिखती, चारों तरफ बस अंधेरा और उस अंधेरे मे टिम-टिमाता चाय वाले का बेटरी बल्ब और पास खड़ी एक अन्डे आमलेट वाले की रेड़ी जो उसी बल्ब के सहारे उस अंधयारी सड़क पर खड़ा है, कोई एक-आद ग्राहक आता ही रहता है जिससे उसकी कुछ घंटे खड़े रहने की हिम्मत बनी रहती है।


जैसे ही गिनती-चुनती के लोग भी घरों की तरह रूख कर लेते है वैसे ही सिमटने का दौर शुरू हो जाता है 9 साडे 9 आखरी टाइम माना जाता है जिस वक़्त कोई भी दिखाई नही देता ना लोग और ना वो टिम-टिमाता बल्ब आखिर बैटरी भी कब तक बल्ब जलाएगी वो भी कुछ घंटो तक अंधेरे से कुछ लोगों को बचाती है उसके बाद अंधेरा उसे भी अपनी चपेट मे ले सो जाता है सब के साथ।


सबके सो जाने के बाद इलाके मे लाइट आती है ठीक रात 11 बजे गिने-चुने लोगों के घरों से टि.वी चलने की आवाज़ों से ये महसूस होता है कि ये इंतज़ार में थे खुद को बोरियत से बाहर लाने के लिए क्योंकि अंधेरा सिर्फ डर ही ही नही होता। कुछ लोग अंधेरे मे खुद को उतार लेते है और सामना करते है उस ओझलपन का जिसमे कुछ दिखाई नही देता जिसमे एक छवि दम से खड़ी होती है दोनो ही जीदार है और दोनों ही एक-दूसरे को डराने का दम रखते है जिसकी हिम्मत 11 बजे तक टिक जाए वो विजेता क्योंकि 11 बजे हर घर का एक बल्ब जरूर जलता है और हज़ारों बल्ब की रोशनी के आगे जो बचा वो सकून में।


सैफू .

दिल्ली में फ़ायरिंग, 'इंडियन मुजाहिदीन' की चेतावनी

घटनास्थल















भारत की राजधानी दिल्ली में अज्ञात बंदूकधारियों ने जामा मस्जिद के गेट नंबर तीन के बाहर पर्यटकों की एक बस पर गोलियाँ चलाई हैं जिसके कारण दो लोग घायल हो गए हैं. पुलिस के अनुसार सुबह लगभग साढ़े ग्यारह बजे इस इलाक़े में फ़ायरिंग हुई और फिर हमलावर मोटरसाइकिल पर फ़रार हो गए.

इस घटना के बाद, दोपहर में बीबीसी हिंदी को भेजे गए एक ई-मेल में ख़ुद को इंडियन मुजाहिदीन बताने वाले एक संगठन ने सीधे इस घटना का ज़िक्र किए बिना 'भारत प्रशासित कश्मीर में मारे जा रहे निर्दोष लोगों का हवाला देते हुए दिल्ली में राष्ट्रमंडल खेलों के बारे में चेतावनी दी है.'

"क्या कहना है प्रत्यक्षदर्शियों का"
गोलीबारी के दो घंटे बाद जामा मस्जिद से थोड़ी दूर एक पुलिस थाने के पास एक कार में भी आग लगी. बम निरोधक दस्ते ने जांच के बाद उसमें से एक प्रेशर कुकर जैसा सामान निकाला है लेकिन इसमें भी जान माल का कोई नुकसान नहीं हुआ है.

दिल्ली पुलिस के प्रवक्ता राजन भगत ने शाम को बीबीसी से बातचीत में कहा कि इस घटना में घायल दोनों विदेशी सैलानी अब ख़तरे से बाहर हैं.

राजन भगत ने इस घटना में किसी चरमपंथी संगठन का हाथ होने से इंकार करते हुए कहा कि ये किसी आपराधिक गुट का काम लगता है. उनका कहना था, '' ये पुलिस को निशाना बना रहे थे. किसी चरमपंथी संगठन का इसमें हाथ नहीं लगता है.''

इंडियन मुजाहिदीन का भेजा संदेश
घबराने की ज़रूरत नहीं: शीला दीक्षित
"एज़ वी ब्लीड सो विल यू सीप.....सावधान ये अल्लाह के शेरों की पहल है. हम आपको चेतावनी देते हैं कि यदि दम है तो आप कॉमनवेल्थ खेल आयोजित करके दिखाएँ. हमें पता है खेलों की तैयारियाँ चरम पर हैं. सावधान ! हम भी आश्चर्यचकित कर देने के लिए पूरी तैयारी कर रहे हैं..."


बीबीसी को भेजे ईमेल में जामा मस्ज़िद के पास हुई घटना का ज़िक्र किए बिना कहा गया है - "अल्लाह के नाम पर, हम ये हमला आतिफ़ अमीन, मोहम्मद साजिद को श्रद्धांजलि के रूप में पेश करते हैं..."

पाँच पन्ने के ई-मेल में कहा गया है - "एज़ वी ब्लीड सो विल यू सीप.....सावधान ये अल्लाह के शेरों की पहल है. हम आपको चेतावनी देते हैं कि यदि दम है तो आप कॉमनवेल्थ खेल आयोजित करके दिखाएँ. हमें पता है खेलों की तैयारियाँ चरम पर हैं. सावधान ! हम भी आश्चर्यचकित कर देने के लिए पूरी तैयारी कर रहे हैं...."

ग़ौरतलब है कि दिल्ली में दो हफ़्ते बाद राष्ट्रमंडल खेल शुरु हो रहे हैं और राजधानी में अनेक विदेशी नागरिकों के पहुँचने की संभावना है.
इस घटना के बाद दिल्ली में तनाव फैल गया है और मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने लोगों से शांत रहने की सलाह दी है. दिल्ली और मुंबई महानगरों में हाई एलर्ट की घोषमा कर दी गई है.

जो लोग घायल हुए हैं वे दोनों ताईवान के नागरिक हैं. वे लोकनायक जयप्रकाश नारायण अस्पताल में भर्ती हैं और ख़तरे से बाहर हैं. गृह मंत्रालय और सुरक्षा बल सतर्क हैं और पूरे मामले की जाँच चल रही है. लोगों को घबराने की ज़रूरत नहीं है, सुरक्षा व्यवस्था और कड़ी की जा रही है
"मुख्यमंत्री शीला दीक्षित"

फ़िलहाल दिल्ली के प्रशासन और पुलिस ने ये स्पष्ट नहीं किया है कि ये चरमपंथी घटना है या नहीं. दिल्ली पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों ने फ़िलहाल इस घटना के किसी तरह के चरमपंथ से जुड़े होने की बात नहीं कही है.

दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने कहा है, "जो लोग घायल हुए हैं वे दोनों ताईवान के नागरिक हैं. वे लोकनायक जयप्रकाश नारायण अस्पताल में भर्ती हैं और ख़तरे से बाहर हैं. गृह मंत्रालय और सुरक्षा बल सतर्क हैं और पूरे मामले की जाँच चल रही है."

'राष्ट्रमंडल खेलों में सुरक्षा तगड़ी'

"संयुक्त पुलिस आयुक्त करनैल सिंह"
दिल्ली पुलिस के संयुक्त आयुक्त करनैल सिंह का कहना है, "मोटरसाइकिल पर सवार दो लोगों ने सात-आठ राऊंड फ़ायरिंग की है. इन्होंने रेन कोट पहन रखे थे. घटनास्थल से गोलियों के चार छर्रे बरामद हुए हैं. इस घटना में दो लोग घायल हुए हैं. मामले की जाँच चल रही है."

जामा मस्जिद के शाही इमाम बोखारी ने एक टीवी चैनल को बताया, "लगभग साढ़े ग्यारह बजे वे गेट नंबर तीन के दरवाज़े के बाहर थे जब मोटरसाइकिल पर सवार लंबे कद के दो नौजवानों ने स्टेन गन से फ़ायरिंग की. जब उन्हें एक व्यक्ति ने चुनौती दी और उनके पीछे भागा तब वे इलाक़े से भाग निकले."

http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2010/09/100919_delhi_firing_as.shtml

एक नज़र

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गुज़ारू अपना आज किसी सपने में सजा कर
उतारू अपने आप को किसी आईने में बसा कर
निकलु मैं भी एक दिन उड़ने की तमन्ना लिए,
चलु मैं भी एक दिन खुद को भीड़ बता कर...

जिंदगी के लम्हातों से पूछु अपना हाल बे-हाल बता कर
सीखू उससे जीना सुर-ताल लगा कर.
सुनाऊ कोई सपना, अपना कोई पल छुपा कर,
और पूछु अपने कल से अपना कल बता कर.


सैफू


माफ़ी
चाहता हूँ दोस्तों इतने लम्बे समय तक आपसे दूर रहने के लिए.

इसकी एक ख़ास वजह है मैं उ.प में एक प्रोजेक्ट से जुदा हुआ हूँ जिसके लिए मुझे यही पर अपना समय देना पड़ता है, यहाँ पर मैं खुद की कोशिश से एक लैब बना रहा हूँ जिसमे लोकल लोगो की शिरकत से ही मैं जगह की बसावट में उतर सकता हूँ,
यंग राईटरस के साथ काम करना और उनकी उत्तेजनाओ को संभवता के पायेदान तक लाना मेरा काम है जिससे की वो अपने कल में आज के इस समय को दोहरा सके उनकी रचनाये उनको एक पहचान दे सके... कोशिश है समय को दोहराने की, बनने से बनाने तक को सोचने की वो ख़ास जगह जहा लड़के-लडकिया खुद से खेल पाए, सोच पाए उस खेलने को, लिख पाए उस सोचने को और दिखा पाए अपने लिखे हुए को समाज और शेहेर की घिच-पिच करती भीड़ में.
ये एक कोशिश है अपने साथ भी और जगह के साथ भी कि क्या कोई एसी जगह अपने रंग में लोगो को रंग सकती है ?
क्या सपनो को दीवार पर सजाया जा सकता है ?
क्या कल्पनाओ को बाज़ार में सुनाया जा सकता है ?
क्या खुद कि नज़र से देखे उन लम्हों को ओरों कि नजरों का हिस्सा बनाया जा सकता है ?

एसे कई सारे सुझाव और सवाल दिमाग में पहरे देते रहते है लेकिन उनको हकिकत की शक्ल देने में एक लम्बा समय चाहिए वो लम्बा समय बार बार ये एहसास दिलाता रहेगा की वक़्त के बदलते काटो के साथ अगर खुद को बदलने की ज़िद भी जुड़ जाये तो उन बदलते पलों में, मैं खुद को भी पाउँगा . और समय यही चाहता है की सबको उसकी रफ़्तार से चलना चाहिए जो छूट गया वो कल वापस नहीं आएगा और अगले कल में खुद को देखना आपको काफी पीछे छोड़ देता है.

लोग कहते है कछुए की चाल में आलस कम होता है तेज़ भागने से आप कही जाकर रुक जाते हो जहा जाकर आप पीछे छूटने लगते हो...
ये सोचने वाली बात है की जीवन रचना की रफ़्तार क्या होनी चाहिए ?
मुझे लगता है कि समय हर घडी हमे ये महसूस करता है कि हमे किस रफ़्तार से चलना चाहिए, हर मोड़ पर संभलने के संकेत देता नज़र आता है समय.
वक़्त-बे-वक़्त बनते किस्सों में आपको शामिल होने के न्योते देता है तो कभी पिछले किस्सों से मिली नसीहतो को सामने ले आता है और रफ़्तार पर असर छोड़ता है.

ये एक धारणा हम सबके दीमाग में रहती है शायद आपकी धारणा कुछ और हो लेकिन मेरी सोच और मेरे ख्यालात यही कहते है की हमे वक़्त की रफ़्तार से कुछ सीखना चाहिए उसकी गति धीमी ज़रूर है मगर बदलते समय में वो खुद को तरह-तरह से ढाल लेता है - जब लोग कहते है - "यार आज दिन का पता ही नहीं चला, कब खत्म हो गया" या "यार इतनी देर हो गई बेठे-बेठे लेकिन समय है कि कट ही नहीं रहा".
ये समय के अपने कुछ ढांचे है जो हमारे साथ तरह-तरह से जीते है लेकिन फिर भी लोग उसकी गति और बदलते रूप से कुछ सीच नहीं पाते, अपने बड़े-बुजरूगो से कहावत के नाम पर सीख का पाठ ज़रूर रट लेते है लेकिन समय के साथ चलना नहीं सीख पाते . शायद में भी आज ही इस गति को सोच रहा हूँ आज से पहले मैं भी इस रफ़्तार से ओझल था जो रोज़ मेरे साथ जीता है में उसी को नहीं सोच पा रहा था.

आगे से हम सब समय कि रफ़्तार को सोचेंगे और उसके साथ आगे बदने कि नीति को अपने जीवन में अपनाएंगे
हमेशा खुद को आगे के लिए तैयार करना है, हर बार आगे बड़ने को सोचना है जीवन भी आगे बाद रहा है समय भी आगे बाद रहा है तो हम क्यों ठहराव में जीए ये हमारी ज़िद होनी चाहिए तभी एक नया सपना पूरा होता दिखाई देगा ----



सैफू .

ढेरो गड्डे

वो पल जो वक्त की रफतार को पकड़ने की कोशिश में उसे तेज़ कर खो बेठता है अपने अतित को। तलाश जो अपनी दिनचर्या में खुद की मैं गाथा को कही अंधियारे कमरे में ओझल करती जाती है। मगर हम फिर भी अपनी वो खुदाई खत्म नही करते इस उम्मीद मे की हो सकता है जीत जाऊ ? कही ना कही उस अनमोल खज़ाने की तलाश में लगे रहते है और ढेरो गड्डे खोदते चले जाते है अपने सफर को इतिहासिक बानाने की कोशिश में।

एसा लगता है कि एक चिरग की रोशनी दूर से सब साफ दिखाने में सब मटमेला करती जा रही है । उस में भी आँखे तलाश रही है अपनी दूरी के सफर को जो कही छोटा होने के बावज़ूद भी बहूत लम्बा लग रहा है ।

ना जाने कितनी परछाईयो को पार करना पड़ता है ।और कितनी अनदेखी अफवाऔ को मानना पड़ता है । क्योकि सफर हर बार मिलता है एक नई छवी के साथ जो उसे छिलती नोचती और पी जाती । पर पीना भी अधुरा होता क्योकि कुछ ना कुछ झुटन तो बच ही जाता है।वो ही झुटन किसी मेजिक बॉक्स की तरहा फिर भर जाता जो परोसा जाता किसी नए के सामने अपने नए स्वाद के साथ। फिर क्या ? लग जाते है इसे एतिहासिक बनाने में। सब कुछ ओखली में ड़ाल कुटने लगते है एक नए मिक्शचर की उम्मीद के लिए।

फिर भी याद आता है अपनी दुरीयो का नापा वक्त जो अपने बने ढाचो में कही छिपा हमे ही तकता रहता है। वो दिवार पर लगी घड़ी जो अपनी दूरी को नापने के लिए सब गिनती जाती है ओर अपनी धड़कन से अपने होने की मोज़ूदगी का एहसास दिलाती। और कहती कितने दिन हुए । चलो आज फिर साथ मिलकर अपनी बातो में मुझे खोने दो ।

वो चाय के खाली गिलास आज भी इसी उम्मीद में रखे दिखाई देते है कि आज तो कोई मण्डली हमारे साथ अपने सफर को बाँटे और हमारी गरमाई में इस गर्म माहोल में मिठास मिलाए। पर वो मिलना भी उसे पता है बटना ही था तभी खामोश होकर उन बिखरे दानो को बस देखने का ही काम करते। आज वो सफर मे तय हुआ वक्त धुंधला है या गायब पता नही। पर कुछ है जिसकी उम्मीद है।

पता नही क्यो हम अपनो से ही कटने लगते है। अगर पुछो तो कभी समय नही मिलता कहते है या काम में व्यस्त है कहकर अपना रास्ता नाप लेते है सफर के रास्तो में उन को धुंधला करते चले जाते है । फिर भी तैयार रहता है अपना एतिहासिक पन्ना हर किसी को सुनाने के लिये ।

कभी-कभी हम खुद को इतना ज़ाहिर कर देते है कि किसी ओर की मोज़ूदगी भी हमे फीकी सी लगती है। फिर निकलते है हम अपने सफर की तलाश में। वो ही सफर हमारे लिए एक सवाल बना रहता है। कि किस सफर को हम तलाश रहे है ? वो सफर क्या है- जो हमारी रोजर्मरा की जिन्दगी में अपने होने की छाप छोड़ जाए और आए दिन अपने होने को हमारे लफ़्जो के साथ हमारे अपनो में बोंते
मनोज

दोतरफा



दोतरफा शब्द हमेशा एक पहलू पर धुंधला पर्दा डाले रखता है जिसके आकार और ढ़ाचें की गणना समान होती है लेकिन रचना और भाषा की समझ पहले पहलू से बिलकुल अलग होती है। जीवन में एसे कई पहलू हमें एक धुंध में रखते हैं जिसमें दूसरे पहलू का मोल जीवनता से हमें ये आभास कराता है कि कुछ पहलूओं का धंध में रहना ही जीवन की गणना है। सच और झूट के खेल में हम हमेशा दोतरफा की बहस में रहते हैं कि कुछ तो एसा होगा जो पोल-खोल के इस पहलू से हमें एक सीधी नज़र दे सके जो कि एहसास और विश्वास के दम पर रचा जाता है।

अपने तर्क को हम सहमती के अहसास में उतार लेते है जिसको लेकर कभी समाज तो कभी सत्ता अपने तर्क के साथ हमारे बीच पेश आते हैं, तब हर एक तर्क के वज़न का एहसास कई पहलूओं की धूंध को साफ करता दिखता है जिसमें खुद की समझ से बहस करना और दूसरे पहलू को नकारनें के साथ-साथ सोच पाना मुश्किल हो जाता है।

कुछ ही दिनों पहले की बात है गली में रिया और शेहज़ाद के घर से भाग जाने की खबर से सब की बातों का एक किस्सा उनके भाग जाने से जुड गाया। सबकी बातों में सही और गलत को लेकर चर्चा थी कि सही है तो कैसे? गलत है तो क्यूं ? मज़हब को भूल कर भाग कर शादी करने वाली बात पर कूटनीती का सिलसिला आपसी बातों में घुसता जा रहा था मगर अहसास के साथ जुड़े उस रिश्ते को सोच पाना सबके लिए अपनी समझ के आगे फीका था।

ठैस पहुचना, रिश्तेदारों को जवाब देना, मर्यादा को लांगना और मर्ज़ी जैसे शब्द को समाज के बीच रख पाना ही उस पहलू के तर्क पर टिके रहने की बहस थी। लेकिन अपने खुद से, अपने समाज से झूझ के जिस रिश्ते की नीव रखी गई है उसे अगर सोचा जाए तो दूसरा पहलू कुछ और ही कहता है उस पहलू का तर्क सिर्फ अपनी सहमती के अहसास से भरा है जिसके साथ सदा से समाजिक बहस जुड़ी हुई है। कभी- कभी हम खुद को सहमती में लाने के लिए अपनी सोच को कही रोक देते है एसे में इस मुद्दे पर रिन्कू हसते हुए बोला :- सबकी जोड़ी वो ही बनाता, भाग्य विधाता।

उसकी इस बात ने समाजिक सोच और नियम को कोई धक्का तो नही दिया लेकिन उस धक्के के जोर को कम जरूर किया जिस धक्के को सोचकर वो किस्सा चर्चित था।



सैफू.

कोरियर बॉय...

पहला दिन बड़ा ही थका देने वाला था गर्मियों की छुट्टियों में शहर की दौड़-धूप के बीच उतर पड़ा था मैं।
ओफिस से मिला एक काला बेग और कुछ पैकेट, जहां से मुझे वो पैकेट उठाने के लिए कहा गया था उस ड्रा नीचे लिखा था चाँदनी चौक और आस-पास दरिया गंज, दरीबा, जामा मस्जिद...

मुझे चाँदनी चौक के लिए चुना गया था और हर पैकेट को पहुचाने के बाद स्लिप पर साइन करवा कर वापस लाने को कहां जिससे की मेरे काम को गिनतीयों में उतारा जा सके।

कुल 16 पैकेट और 16 गलियां, 16 पतें और 16 अलग-अलग आस-पास की पहचान कहीं गली के पास स्टेट बैंक ओफ इंडिया तो किसी गली के बाहर साबरीन मस्जिद किसी गली की पहचान पुराने प्याउ से तो किसी गली को फाटक से नवाज़ते लोग।

पतों की खोज और पहचान करते-करते शहर के कुछ हिस्सों को एसे देख रहा था जैसे शहर में कोई अजनबी आया हो, कोरियर का काम शुरू करने से पहले मेरे दोस्त ने ये सलाह दी थी कि "काम मुश्किल नही है मुश्किल है तो जगह की पहचान होना ।"


सैफू.

" स्ट्राईकर "


हमारे बीच कुछ चीज़ें, सवाल, बातें और खेल कुछ हद तक हमारी रोज़मर्रा से समय को खींचते नज़र आते हैं। और वो खींचाव कहीं कहीं किसी पड़ाव की तलाश में घूम रहा होता है। कैसे कोई संसारिक मुहावरों में जीने लगता है और ज़िन्दगी के पहलूओं पर एक खास नज़र बनाता है कि इस बाग-दौड़ में जिया कैसे जाए?
अकसर हम ये महसूस करते है कि जिंदगी एक कतपुतली के खेल की तरह है उंगलियों के इशारे हम बखुबी समझते है लेकिन स्ट्राईकर इस भुमिका में जीकर भी दुनिया से ये सवाल नही कर पाता क्योंकि जीवित और निर्जिव का फर्क सोच पाने के पहलूओं को बाट देता है।

इसी
बात को ध्यान में रखकर स्ट्राईकर नाम की एक फिल्म बाज़ार में उतरी है जिसमे खेल के माध्यम से किसी रोज़मर्रा, जीवन और अस्तितव के कई रूपक देखने को मिले।
बात करते है स्ट्राईकर की जिसकी भूमिका समाज मे कई रूपों मे देखी जा सकती है-

किसी
सोच को आगे धकेलने की भावना लिए जिसमें वास्तविक रूप से आपका अपना रूझान और विश्वास नज़र अता है। बहस और इज़जत को एक-साथ जीते लोग अकसर इस स्ट्राईकर से खेलते नज़र आते है और ये खेल कई हद तक भावनात्मक रूप से हमको लालसा और मज़े के हवाले देता है।
जिसमें लिपटा हर एक पल कई रचनात्मक सोच को माहौल की बुनाई में रखता चला जाता है और जगह को, चहरों को, आते-जातों को मुस्कुराने के कई लम्हें दे जाता है


सैफू.

इश्तिहार


इश्तहारों की भीड़ में छपा मैं भी कई जगह
किसी ने सुबह देखा, किसी ने शाम
देखने वालों में बड़बड़ाया गया, दोहराया गया
नज़र अंदाज़ भी किया गया

जगह की छाप ने मुझे दिखाया हर जगह
खबरों की आड़ में, पेपर की ताड़ में लगे चहरों ने
मुझे सुनाया हर जगह।

मैं बोलने लगा, मैं बिकने लगा
मुझे खरीदा गया हर जगह
न देखी किसी ने शाम, न देखी सुबह
मुझे मुद्दा बनाकर बताया गया जगह-जगह

वो परेशान थे, वो नादान थे
लेकिन मुझे क्यूं गप्पेबाज़ी का ज़रिया बनाया गया हर जगह
रात का होता अंधेरा अकेला कर देता है मुझे
लेकिन अंधेरों में भी चिपकाया गया मुझे कई जगह

हादसो के शहर में गुम हो जाता है कोई जब
ढ़िंढ़ोरा मचाने वालों की भीड़ लगती है तब
मन-घड़त कहानियों में उतारा जाता है कोई
मैं मन ही मन कहता हूं लोगों से
क्यों भीड़ लगाते हो जगह-जगह


सैफू.

Trickster City

Tricks of light

A group of Delhi writers from the working class brings you closer to the Indian metropolis than you've ever been, says Raghu Karnad. Photograph by Paroma Mukherjee.

Last September, an editor of the newsweekly Open, Hartosh Singh Bal, posted a typically provocational editorial on the magazine’s website. His wildly fired broadside accused Indian English fiction writers, “living in south Delhi and south Mumbai, writing for each other”, of being effete and lacking the guts to grapple with modern India. The names on the comment-stream that followed on Open’s website were like a roster of Delhi literati, who lined up to give Bal an eloquent thumping. Still, the episode exposed a nervousness in Indian English publishing, that for all the reviews and longlists, the writing just wasn’t catching fire. This fear is coldest in Delhi, which is quickly growing as both a source and a subject of writing in English. It’s a hell of atmosphere in which to encounter Trickster City.

In 2005, eight Delhi writers began meeting to discuss how to write about the city. The congregations were part of the CyberMohalla labs organised by Sarai and the Ankur Society for Alternatives in Education. The question of how to write Delhi was an urgent one , as the still-vague idea of the Commonwealth Games was starting to reshape the city in very real ways. The writers’ group grew and continued meeting: men and women, all Hindi-speaking, all below 30, all residents of that other Delhi, the city of the tenth-pass, the vocational course and the government OPD. Scenes, questions and pieces of overheard conversation ricocchetted between them.

Then, in early 2006 came a tragedy that scorched the book they would eventually write together. The High Court ordered the demolition of Nangla Maanchi, a slum colony on the Yamuna’s east bank. Some parts of it were bulldozed. Perhaps 30,000 people were displaced. A few of the writers had lived there, and they all haunted the place as the MCD
and police slowly ground a living town into a mess of crushed brick and plastic sheeting. Visthapan, or displacement, became a hot word in their conversations.

In 2007 Bahurupiya Shahar (Shape-Shifting City) was published by Rajkamal Publications. This fortnight, as part of Sarai’s decennial celebration, it will be released in English as Trickster City. It is a collection of short pieces – “part reportage, part fiction, part conversation, part Sufiana poetry”, according to contributor Love Anand. The way Trickster City pours light on the Indian megacity feels similar to how Arun Kolatkar’s Jejuri made the Indian pilgrimage town visible, using a mix of mockery, devotion, observed detail and vast imagination.

The marvel of this book is difficult to pinpoint. It has a richness of recorded detail from the belly of a modern Indian metropolis. Its emotional range is large, from humour (as in the opening story, Jaanu Nagar’s Delhi Liner) to empathy (Neelofar’s My Mother’s Dread) to essay (Suraj Rai’s Having Seen it From Close). There is the sustained vitality of its translation into English by Shveta Sarda. Perhaps most impressive is the fact that Trickster City has no bad guys, not the police, not the state, not even the bulldozers.
Whatever its literary strengths, any reader accustomed to Indian English writing is likely to approach Trickster City like a meaning-loaded dance with difference. The different-ness of the authors can seem like the key, the lock and the room, all at once. But to them it is beside the point. The book is not based on a partition between any worlds, said Anand. The writers all agreed that it wasn’t written as a message to either the elite or the downtrodden, but rather to the stranger who is everybody else and even part of oneself.

“You haven’t picked up a stranger’s book,” said Nagar, who lived in Nangla Maanchi after moving to Delhi. “Or you have, but it’s a stranger like you find when you’re crossing the Ring Road, feeling the velocity of the cars going past. Then your hand reaches for a stranger’s hand to help you cross. They say in Delhi there are no red lights, there are only the hands of strangers.”

But there’s no point saying their difference is irrelevant. Much Delhi writing has tried reaching down from above, to grasp at the experience of the non-elite, most famously the Booker Prize-winning White Tiger. This book seems to lay its hand directly on the flesh and nerve that is the human content of Delhi. The fact that CyberMohalla incubates this kind of creativity is a reminder that Sarai, whose publishing flies high over most people’s heads, is doing work that’s utterly relevant.

Their difference also shows in the introspection that accompanied their writing. “Many people write in this city,” Nagar said. “People write in shop ledgers, write FIRs, write the change they owe you on your bus ticket. But I think a writer could be a person who uses words to expand his world.” To illustrate, he describes a day during the demolition of Nangla. “I approached a man sitting on the rubble that was his house, and I asked him to sing a song for me. He said, god, how can I sing now? I told him to sing such a good song that even that much sadness would be forgotten. So he sang, and he became a writer, writing over his own heart.”

Nangla and visthapan do persist at the heart of this book, figuratively and literally (in a tour de force middle chapter). But the point that the writers make with it is subtle, sometimes even uplifting. Shamsher Ali recalled a line by co-contributor Suraj Rai: “He said, how a house is built can be understood only in the moment in which it is destroyed.” Even the demolition is recruited into an understanding of the spirit that builds a city, a sentiment held by the epigraph of Trickster City: “So that affection for the city endures.”

Trickster City, Penguin, Rs 499.

Source : Time Out Delhi


http://www.timeoutdelhi.net/books/book_feature_details.asp?code=86

एक-दूसरे की तलाश में



आज
जब हम अपने बड़ों से चोरों के किस्से सुनते है तो या तो वो तानाशाही जैसे ढ़ाचे में जड़कर सुनाए जाते हैं या फिर टुच्चे-मुच्चे बदमाशों की कतार में, इन सबका दिल्ली शहर में सालों से दबदबा बना रहा है और आज भी उन्ही के नामों से कई इलाकों को नवाज़ा भी जाता है और उनका नाम लेकर बदमाशी का वो दौर दोहराते हुए पनपते बदमाश भी दिखाई दे जाते हैं जिसमें की आपसी लड़ाई की बहस कम और इलाकावादी सम्मान को लेकर लड़ाई ज़्यादा झलकती है जिसमें जिसका पलड़ा भारी रहता है उसी की जगह-जगह चर्चा होती है और उन्हें आस-पास की काना-फूसी में पुसतेनी बदमाशों के नाम से जाना जाता है कि-
"उसका बाप क्या कम था! भाई कोई बोल तक नही सकता था उसके आगे इतना भरम था उसका"

कई बार कुछ यूं सुनने को मिलता था कि कुछ चौरों को आम-पब्लिक ने बीच चौराहे पर बांधकर मारा, घसीट-घसीट कर मारा, मार-मारके मार डाला।
बदमाशों की छवि अब हर जगह फीकी पड़ती जा रही है और अब इलाकों में नऐ नामों से जाने जाते चहरे सामने रहे हैं " मशीन " एसा नही है कि ये समाज में नए दाखिल हुए हैं पहले इन्हें जैब-कतरों के नाम से जाना जाता था लेकिन अब दौर बदल गया है मशीन जैसे नाम ने इनकी पहचान के साथ साथ इनका काम भी बदल दिया है।
आज मोबाइल मशीनों की कारास्तानी की वजह से हमारे बीच इतनी हल्की छवि लिए खड़ा है मानों जैसे हम कोई रेडियो खरीद रहे हों। खुद के वजूद के साथ, खुद के आकार और नाम के साथ महंगे दामों में कभी रेडियो बिका करते थे आज रेडियो की मार्किट बहुत खस्ता है क्योंकि मोबाइल ने रेडियो को जिस तरह से पब्लिक में पेश किया है शायद रेडियो अपने खुद के लिए ये कभी नही कर पाता।

जैब के इस हैर-फैर को हम खुद में इतना ढ़ाल चुके हैं कि ये सोच कर रह जाते हैं “200 रुपये का तो लिया था निकल गया तो कोई बात नही, 6 महीने चला लिया- हो गऐ पैसे वसूल। तब हम सिर्फ अपना फाएदा ही सोचते है लेकिन एसे में जैब से जैब तक का ये सफर हमें उन लोगों से ओझल रखता है जो हमारे बीच रहकर ही ये हैर-फैर का गैम खेल रहे हैं और यहां बात सिर्फ फायदे और आस-पास में होती अदली-बदली की नहीं, बात तो इतनी फैल चुकी हैं कि इन लोगों का काम इलाकों में इसलिए फैलता जा रहा है क्योंकि अब हर जगह मोबाइल की दुकानों की तादात बढ़ती जा रही है और दुकानों का बढ़ता सिलसिला ये एहसास दिलाता है कि- कहीं लोगों से ज्यादा मोबाइल तो नहीं ?


इस बीच मेरा एक दोस्त जिसने हाल-फिलहाल में ही चिलती क़बर पर मोबाइल की दुकान खोली है उसका काम सिर्फ मोबाइल रिपेयरिंग करना का है जिससे कि रोज़ाना के 150-200 रुपये बन जाते हैं लेकिन शाम होते ही जब हम कुछ यार-दोस्त उसकी दुकान पर मजमा लगाते हैं तो कई नई फिल्मों को इतने नज़दीक से देख पाते हैं, जिससे कि हमें आस-पास में हो रही उस हलचल के बीच की बातचीत में शरीक होने का मौका मिल जाता है। कौन, किसको, कितने का, कैसे ?
ये सब बातचीत सिर्फ चंद अल्फाज़ों में ही रखी जाती है, जिससे की छुपे-चोरी ये काम करने की समझ बनती है।

मोबाइल की दुकानों की ये अलग की कमाई होती है जिसे वो अपना खर्च मान कर चलते है एक दिन अगर दो एसे सेट दुकान से होकर निकल गए तो समझो हो गई कमाई क्योंकि उसकी दुकान पर आते-जाते कितने ही चेहरों के बीच एसे कई चेहरें रहते है जो सिर्फ दो लाईनों में पूछकर बात खत्म कर देते हैं "आया कोई मोबाइल, आऐ तो मुझे बता दियो"
कई दुकानों का रोज़गार आज की तारीक में इन सेकेंड हैंड मोबाइलों से चल रहा है क्योंकि यहां पर भी इन्हें 100-150 की बढ़त के बाद ही किसी जैब तक पहुचाया जाता है।

मशीनों की हाथ सफाई को अभी भी लोगों की नज़रों से ओझल रखने के लिए अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है जैसे सेट, जुगाड़, या फिर पैन जो कि अज-कल फेमस है।
कभी-कभी हमें लगता है कि हम इन चीज़ों से बहुत दूर है लेकिन ये बातें और ये कारस्तानियां हमारे बहुत नज़दीक से होकर गुज़रती हैं और कभी-कभी खुद को ये अनुभव भी लेना पड़ जाता है कि जब कोई आपकी जैब से मोबाइल निकाल ले जाए और आप सिर्फ लोगों की शक्लें ही देखते रह जाओ उस वक़्त इलज़ाम लगाने की जगह बचती है ना छान-बीन की। अपना नम्बर मिलाओ तो ये पता नहीं चलता कि अब वो मोबाइल किसके हाथों में है, कहां है ?

उस वक़्त सब्र जैसे शब्दों का सहारा लेकर हम जैब से जैब तक के इस फेलते सिलसिले को छोड़कर कोई नया मोबाइल ले लेते है और अगली बार हर एक एसी जगह में अपने आपको संभालने के साथ-साथ हमारा ध्यान अपने मोबाइल पर ही होता है और उस वक़्त पास खड़ा हर व्यक्ति हमें मशीन लगता है क्योंकि किसी एक के माथे पर नहीं लिखा कि " मैं मशीन हूं। "


सैफू.

"अंधेरा सिर्फ डर नहीं होता"

रात काफी हो चुकी थी हर गली चौराहे पर सन्नाटा चुप्पी साधे हुए था। एसा लगता है जैसे हर गली दूसरी गली से मुँह मोड़े हुए थी रात के 2 बजे इन गलियों में एसा कोई नज़ारा नही होता जिसे देखने की तमन्ना मन में हो।

अधेरा- जो एक काला साया सा लगता है, एक सहमा देने वाला डर जो अंधेरे की कोख से पनपता है। कई तरह की झुंझला देने वाली आवाज़े, कोई आहट, कोई दूर खड़ा शख्स या सबसे नज़दीक होते हुए भी नज़रों से ओझल एसी कई छवियां अधेरे को और भी वज़नी बना देती हैं। जिसमें उतरना मतलब- सहम जाना और घबरा जाना ऐसा डर हमेशा हम से जुड़ा रहता है
सदा से डर, हैवानियत, खौफ, वारदात और एसी कई पहेलियां अंधेरे को घोंट-घोंट कर गाढ़ा करते रहे हैं। फिल्मों से लेकर बड़े-बुज़र्गों की कहावतों और किस्सों में रात का काला स्याही अंधेरा हमें डराता आया हैं और डर को एक पहचान दी है कि अंधेरा गली, चौराहे, इलाके, मौहल्ले या शहर में जब आता है तो लोग उसे सबसे ज्यादा किस नज़रों से देखते हैं?

अंधेरे में एसा लगता है जैसे मेरी ही परछाई मेरा पीछा कर रही हो जैसे मैं भूत से नहीं बल्की खुद से भाग रहा हूं कि किसी किसी तरह ये छोटी-बड़ी होती परछाई कहीं पर आकर रूक जाए लेकिन परछाई का रुकना मेरे कदमों को कहीं से कहीं तक नही रोक पाता एसा लगता है जैसे मैं अपने आपको समेट, अपनी हर आहट को समेट बस भागा चला जाऊ- "हकीकत तो हम सब की नज़रों से दूर नहीं लेकिन सिर्फ़ ये लगना ही डर को और मज़बूत बना देता है।"
मन में उठी हर एक हड़-बड़ी कोई राहत तलाश रही होती है कि कोई तो दिखे, कहीं तो दिखे चाहे ऐसा-वैसा ही दिखे लेकिन लगे तो सही कि मैं अकेला नहीं हूं

अफरा-तफरी जैसी भाद-दौड़ लिए मैं चप्पलों की एडी से आने वाली आवाज़ को निकालते हुए हबड़-तबड़ गलियां पार किये जा रहा था इस गली से निकलकर उस गली में और उस गली से चौराहे की उस गली में जहां का अंधेरा किस्सो का हिस्सा रहा हो। आढ़ी-तेढ़ी गलियों से होते हुए मैं मंज़िल के काफी नज़दीक था लेकिन अंधेरे का वज़न अभी भी मेरे लिए उतना ही था जो शुरूआती डर में था। इतना काफी नही था कि जिस्म सहमा देने वाली कोई आहट ने दस्तक दिए।

फुसाहट की आवाज़े गली में एक अजीब सा डर पैदा कर रही थी - आगे बढ़ने का डर, दिख जाने का डर, कदमों की आहट का डर, किसी वारदात के होने का डर और वो डर जो एक गाढ़ी छवि में दिमाग में बचपन से बैठा है- किस्से कहानियों से, फिल्मों से, डरावनी और डराने वाली शख्सियतों से। आवाज़ आई, मैंने अपने कदमों की सीमित गति को थोड़ा धीमे किया कि कहीं कुछ गड़बड़ ना हो, गली बिल्कुल गुप-गाप थी।

जैसे-तैसे तो अपने आपसे भागते-भागते यहां तक पहुँचा और अब ये सीन, फुसफुसाना लगातार जारी था। मैंने एक वक़्त के लिए सोचा कि रास्ता बदल लेना ही अकलमंदी होगी पर मैंने तो सोच समझ कर ही ये रास्ता चुना था जिधर डर कम लगे, किसी और रास्ते से घर पहुचना मतलब अंधेरे में दम घुट-घुट के मर जाना। रात की चाँदनी रोशनी भी मुझे एक कदम आगे बढ़ाने की हिम्मत नहीं दे पा रही थी पर वहां खड़ा रहना भी मेरे लिए एसा था जैसे कोई बगल के दरवाज़े से हाथ निकालकर पूछ लेगा- कहां जाना है ?
और इससे बड़ा डर मेरे लिए क्या होगा ?

मैं कई तरह के असमंजस में घिरा ये सोच में पड़ गया कि- देखा जाएगा जो होगा, चुपचाप सीधा निकल जाता हूं।
आगे से आने वाली फुसफुसाहट एक बातचीत में थी ये मुझे तब पता चला जब मैंने आगे बढ़ने का होसला किया। दिवार की आड़ में दो ही कदम आगे बढ़ाए थे कि मुझे किसी के होने का अंदेशा हुआ। दो घरों के बीच एक पतली सी गली थी जिसमें कई घरों के दरवाज़े हैं उस पतली सी गली के करीब पहुच कर मुझे ये पता चल गया था कि मैं बे-फज़ूल में आवाज़ों की छवि से डर रहा था।

वहां एक हमउम्र जवान लड़का था जिसे अंधेरे की वज़ह से पहचान सका और एक लड़की थी आवाज़ से वो भी जवान लग रही थी, मैं उस गली के बाहर दिवार की लाड़ लिए खड़ा उनकी आहट और आवाज़ों से माहौल की हरकत को जानने में लगा था।

लेकिन अंधेरा मेरी जान खा रहा था लेकिन एक तरफा होसला भी मिल रहा था उन दोनों से कि- अंधेरा सिर्फ डर नही मुलाकतें भी बुनता है, बातचीत का ज़रिया भी बनता है जो कि रोशनी में बिखरी नज़रों से ओझल रहता है। वो दोनों फुसफुसा रहे थे- लड़का कहां था और लड़की कहां थी पता नही चल रहा था पर कोई एक छवि दिख रही थी परछाई सी जैसे कोई एक ही हो, लेकिन बातचीत में तो दो लोग थे।

मेरे आगे एक उलझी हुई पहेली थी और पीछे किसी के हाथ की मौजूदगी का एहसास, मैंने पीछे मुड़कर देखा गली के नुक्कड़ पर दरवाज़े से निकलती रोशनी और दूर तक सन्नाटा, आगे दो गलियों का मोड़ और जहां मैं था वहां किसी की मौजूदगी जो कि रोमांचक थी लेकिन रोमांच से कही ज्यादा वज़न लिए खड़ा था डर जो मुझे पल भर में सहमा भी सकता था। अब घबराहट जिस्म में अपना दाएरा बढ़ा रही थी जिसकी वज़ह से मैं उस लड़के-लड़की की अंदरूनी कहानी को वहीं छौड़कर आगे बढ़ गया और गलियों को उसी गति से पार किए चला गया जिस गति से मैंने शुरूआत की थी, चप्पलों की हबड़-तबड़ के साथ मैं अपने घर पहुँचा।

जिस काम से निकला था उसे मम्मी को सोपा और रज़ाई में घुसते हुए मम्मी की नींद भरी आवाज़ में जवाब मांगा।
"ऐबी रात को आज के बाद कोई काम मत बोलना इतने अंधेरे में दरते हुए आया हुं, रास्ते में एक लड़के और लड़की की आवाज़े रही थीं एक पतली सी गली में से, मैंने गौर से देखा पर पता नही चला कि वो कौन थे? एक परछाई सी दिख रही थी लेकिन एक ही परछाई थी दूसरी तो कहीं भी नहीं थी"

मम्मी ने मेरी पूरी बात ध्यान से सुनी और सलाह देते हुए कहा :- एसे कहीं भी मत रुका करो, कोई भी कुछ भी हो सकता है, रात में अंधेरे में उन गलियों में जिन गलियों मे असरात होते है वहां पिछलफेरी और सर कटे घूमते है। जो सिर्फ आग या रोशनी से ही दूर भागते है। वो बेहला-फुसला कर इंसान को झांसे में ले लेते हैं।
एसे ही बातों ही बातों में कहानियों का दौर शुरू हो गया। बड़ा भाई और बहन को दिखी एक बड़ी सी परछाई का वो किस्सा फिर सुनने में गया और अंधेरे में मेरा डर के साथ रिश्ता फिर झुंझला देने वाला बन गया।

लेकिन क्या वो गली वाली छवि कुछ और थी जो मुझे अपनी ओर आकर्षित कर रही थी ? या फिर वो उस गली का एक सच था कि अंधेरा सिर्फ डर नहीं होता।

सैफू.