क्या नाम है तुम्हारा ?

मैंने देखा था उसे गली से गुज़रते हुऐ, पीछा करके पूछा "क्या नाम है तुम्हारा?"
वो घबराई, हिली-डुली बोली - "चल आवारा"
घर के नीचे खड़ा रहता था शाम होते ही उसके,
वो आती थी वहां जहां था उसका चौबारा।

एक दिन फिर उसे सीढ़ियों से उतरते देखा, पूछा- "क्या नाम है तुम्हारा?"
वो बिना कुछ बोले सीढ़ीयों पर चढ़ गई दोबारा।
जिस दिन ना दिखे वो गली में, मैं रास्ता तकता रहता था,
अपने में बड़बड़ाता रहता था, बस एक बार दर्शन हो जाए दोबारा।

नज़रों में उसकी जैसे जादू सा था, मन करता था देखूं उसकी आखों में
एक रंग बदलता आसमां नज़र आता था मुझे उसकी झपकती आँखों में।
वो शाम को आती थी, मेरे आगे से सीधी निकल जाती थी,
शायद उसके भी मन मे आया होगा " पूंछू क्या नाम है तुम्हारा?"

बोरियत जैसा कोई शब्द नहीं था मेरी जेब में, जेबों में हाथ डाले खड़ा रहता था,
वो आएगी ये इंतज़ार था, तब मैं पूछूंगा "क्या नाम है तुन्हारा?"
वो मिली मुझे पल्ली गली में, बोली- "रोज़ मेरे घर के नीचे क्या काम है तुम्हारा?"
मैंने उसका हाथ पकड़ा, बोला- "आई लव यू ,अब क्या जवाब है तुम्हारा?"

कहने लगी- एक दिन गली के कोने में लेजाकर, मैं कोई प्यार-व्यार नहीं करती,
मैं तंग हूँ तुमसे, पीछा क्यों करते हो मेरा,
मैं मुस्कुराया, बोला- एक बार बात करनी थी तुमसे बस काम हो गया हमारा।
वो नज़रे झुकाकर जाने लगी जब, मैंने धीमे से पूछा "क्या नम्बर है तुम्हारा?"

वो मुस्कुरा कर बोली- रहने दो, कुछ नही रखा इन चीज़ों में,
मैं भी मुस्कुरा कर बड़बड़ाया- यही तो काम है हमारा।
मुझे यकीन था वो मिलेगी मुझसे ज़रूर क्योंकि अब प्यार एक-तरफा नही,
हो चुका था हमारा।

कल के दिन इंतज़ार की वजह बदल जाएगी
वो आएगी अब मेरी गली में पूछेगी "क्या नाम है तुम्हारा?"


सैफू.

रात मे ना जाने कहां...

गली के बाहर लगे चार लड़कों के मजमे ने अपनी आपसी बातों से आस-पास को अपनी गूंज से महका रखा है, कोई उनको मस्त तो कोई उन्हें छिछोरा बड़बड़ाता हुआ निकल जाता। पर वो चारों अपनी ही मस्ती से माहौल मे वो गर्माई बनाऐ रखते जिससे बातों को सुनाने और सुनने का मज़ा बना रहता।

यहां हर गली, हर नुक्कड़ ऐसी महफिलों का भंडार लिए हुऐ है और हर एक महफिल अलग माहौल और बातें।
कहीं किसी दुकान के बाहर तो कहीं किसी बंद दुकान के चबूतरे पर तो कहीं इन चारों की तरह कही किसी गली के नुक्कड़ पर। ये सब यहीं आस-पास के यार-दोस्त हैं जो आस-पास की किसी भी बैठक पर बैठकर बातें बतियाते हैं।
जैसे किसी तख्त, खाली खड़ा रिक्शा, रेड़ी या चबूतरा। ये रोज़ नई बातें और रोज़ एक नई महफिल को अलग ढ़ंग से सजाते हैं।

कभी 4 तो कभी 6 तो कभी पूरी टोली पर आज ये चारों मस्ती भरे अंदाज़ मे एक दूसरे से मिले हैं।
ना मैं इनका नाम जानता हूं और ना ये जानता हू कि ये रहते कहां हैं ? पर इनकी आपसी बातों की गूंज ने मुझे इनकी ओर खैंच लिया
(सोचता हूं काश मेरे भी कई दोस्त होते और मैं भी इनकी तरह बने एसे मजमों में शरीक हो पाता)
ये चारों एक दूसरे से हंस-हंसकर बातें करते, कभी एक के हाथ बड़ाने पर दूसरा उसके हाथ बड़ाने को समझ उसे ताली देता तो कभी आपस मे ही एक-दूसरे तो उंगली दिखा कर हंसते।
ये इनकी आपसी समझ है जो इन्हें एक दूसरे से जोड़े रखती है, इनका रोज़ कोई नई जगह को तलाशना और मिलना कई संदर्भो मे बहा ले जाता है। एक दूसरे को जान पाना और मिज़ाज़ को समझना रोज़ नई कहानी को इनकी रोज़मर्रा से खींच लेता है।

सुबह से शाम तक की रुटीन को अपनी रात की मण्डली मे उतारना रोज़ का काम बन जाता हैं। ये चारों भी जब एक दूसरे की तरफ इशारा करके हंसते है तो मुझे इनका साथ बिताया हुआ पल दिखाई देता है। जब ये हवा मे बातें करके हंसते है तो मुझे इनसे जुड़ी कई ज़िन्दगियाँ नज़र आती हैं और जब ये हंसते-हंसते चुप्पी का माहौल साध लेते है तो मुझे इनके बीच का संवाद नज़र आता है कि ये महफिलें चीज़ो, माहौलों, शख्सों को सिर्फ़ हल्के मे ही नही गहराइ से भी लेना जानते है, जो इनकी जिंदगी में आते हैं, मिलते हैं और कुछ पल बाद सिमट कर खो जाते हैं।
मैं रोज़ अपनी गली के बाहर इन्हे कहीं खड़ा तो कही बैठा देखता हूं और ये रोज़ इसी जगह को चुनते है शायद कुछ समय के लिए उसके बाद या उससे पहले ये इस रात मे ना जाने कहां नज़रों मे आते होंगे।


सैफू.

चाय, बातचीत और रोज़

कई चलती कहानियों, बातों और किस्सो को अपने मे समेटे ये चाय की दुकाने हमसे भी हमारे रोज़ के कुछ मिनट मांग बैठती ह। इसका लुभावक तरीका और खुला मिज़ाज़ अपनी ओर खैंच लेता है। इसकी खुद की कहानी में कई जोड़ हैं जो आता है वो अपना कुछ टाईम इसमे जोड़कर इसकी डोर को और लम्बा कर देता है।

कई सालों से लोगों के बीच उसी पुराने अंदाज़ में आज भी ये दुकान उसी तरह पेश आती है जैसे बीते कल मे साथ थी। यहां आते लोग कभी-कभी कह बैठते है कि "हम यहां तब से आते है जब यहां 1 रू॰ की चाय मिला करती थी, आज 5 रू॰ की चाय है पर अब भी वैसे ही चाय पीते हैं जैसे 1 रू॰ में पिया करते थे।"
"सच बताऊ तो चाय-वाय तो बस एक बहाना है बस यहां बैठने का जो मज़ा है जो हमारी सालों की बैठक है, वो मज़ा और कहीं नही"
इनका नाम मौ॰ अय्यूब है कम से कम 45 साल के लगते हैं, इनकी बातचीत में बहुत मिठास है और इनकी मिठास की तारीफ तो दुकान के मालिक फिरोज़ भाई भी करते हैं। इनकी और अय्यूब भाई की खूब पटती है, ये सालों से इसी मिठास को अपनी आपसी बातचीत मे बरकरार रख पाऐ हैं।

अय्यूब भाई आज भी आऐ हुऐ थे हमारे आने से पहले ही वो कुर्सी पर अपने कुर्ते को उडेसे बैठे थे। हम तीन लोग सलीम, इशान और मैं रोज़ रात 10 बजे के बाद चितली क़बर चौक पर चाय पीने जाते हैं।
चितली क़बर चौक से अंदर होकर हवैली आज़म खां में ये चाय की दुकान है। अय्यूब भाई हमेशा केश-काउंटर के बराबर वाली कुर्सी पर ही बैठते है जिससे कि बातचीत का सिलसिला लगातार बना रहे।
आज भी वो वहीं बैठे थे, हम तीनों भी उस चार लोगों को समेट लेने वाली टेबल मे सिमट गऐ, अय्यूब भाई हमारे साथ और मेरे सामने वाली कुर्सी पर बैठै थे।
अय्यूब भाई : यार आज घर में बड़ी किच-पिच हो रही थी, छोटी बहू फज़ूली बात पर हंगामा मचाऐ हुऐ है, अरे ये भी कोई बात होती है?
दुकान का मालिक जिनका नाम सिराज है।
सिराज भाई : अच्छा?
उनके अच्छा बोलते ही अय्यूब भाई, सिराज भाई के कान मे कुसुर-फुसुर करने लगे।
इशान सलीम से बोला कि यार ये बताओ कि आज चाय कौन पिला रहा है?
मेरा सारा ध्यान अय्यूब भाई पर था कि यही तो थे वो जो उस दिन कह रहे थे कि मैं यहां तब से आता हूं जब यहां 1 रू॰ की चाय मिला करती थी। उनको देखकर लगा कि अय्यूब भाई का यहां से चाय का कोई रिश्ता नहीं है और ना ही जगह का कोई आकर्षण इन्हे यहां खैंचता है, इनका और भाई फिरोज़ का आपसी रिश्ता ही एक-दूसरे को बांधे हुऐ हैं और सुनने-सुनाने का ये रिश्ता सालों से महफूज़ है लेकिन सिर्फ इस जगह में।
तभी सलीम बोला भाई तू पिला रहा हे चाय?
मैं : हां बनवा लो दो बटा तीन पर मेरे पास सिर्फ़ 7 रू॰ हैं, 3 रू॰ कोई ओर देना।

दुकान ज्यादा बड़ी नही है, चार टेबल और एक टेबल पर चार लोग, मतलब 16 शख्स एक साथ इस महफिल मे शरीक हो सकते हैं। कोई नया डिज़ाइन नहीं है यहां वही पुरानी टेबल-कुर्सियां से सजा माहौल, वही सालों पुराना काउंटर और वही पुरानी दाना-दाना करके बनाई हुई पब्लिक।

तीन कर्मचारी...
पहला : 17-18 साल का लड़का, चाय का काउंटर संभालता है
दूसरा : 12-13 साल का बचपन, पानी के गिलास आते ही आगे रखना और चाय के झूटे गिलास रखने-उठाने का काम करता है।
तीसरा : 40 से 45 साल के उम्रदराज़ ओदे के साथ, वो हर आने वाले का स्वागत उनसे से पूछकर करते है कि
"कितनी चाय ?" वो ओर्डर लेने क काम करते है, इन्ही तीनो का एक काम और होता है बाहर की पब्लिक को संभालना जिसमे दुकान, ठिऐ, और कहीं किसी नुक्कड़ पर लगे मजमे शामिल होते हैं।

सभी कुछ एक आम चाय की दुकान की तरह है जहां लोगो का रुकना-बाहर निकलना चलता रहता है। पर फिर कही ओर जाने का मन नहीं करता। रोज़ इन्ही टेबलों पर टिकाने का मन बनाऐ हम घर से निकल पड़ते हैं।
यही सोच कर कि अपने अड्डे पर चलकर चाय पियेंगे।



सैफू.