वाह-वाह आज भी यूहीं नहीं है!

एसा हमेशा से देखा गया है कि घूमने वाले के मन में एक लालसा होती है शहर को भीड़ में देखने की, वो भीड़ जो उसको भी अपने आप में समेट कर सामने वाले के लिए सिर्फ एक ही नाम छोड़ता है "भीड़"।
इसमे कई चहरे, कई मज़हब और कई तरह के माहौल जो कहीं-न-कहीं एक खाचे में अपने आपको छुपाए बैठे हैं जिसकी परख आप भी में उतरकर ही समझ पाते हो।

पुरानी दिल्ली- जो पहचानी जाती है भीड़ से, जिसे नवाज़ा जाता है यहां के माहौलों से, जिसे याद रखा जाता है यहां के चहरों और जगहों से, जिसे सुनाया जाता है यहां की आपसी बातों और समय से।
अपने आपको कई तरह के बदलावों में संजोती ये जगह कभी तो बदलावों को स्वीकार कर लेती है तो कभी बदलाव में जीने से किसी एसे डर को जोड़कर छोड़ देती है जिससे पुरानी दिल्ली हमेशा से लड़ती आई है- डर है खासियत के खो जाने का, डर है ज़हन से नाम मिट जाने का, डर है याद रखने की वजह बदल जाने का।
पर पुरानी दिल्ली की वाह-वाह आज भी यूहीं नहीं है! यहां के लोगों ने इसे हमेशा से रंगीनियत में रखा है समाज के साथ एक लम्बे समय से बहस में रहे हैं।
" ये बाज़ार है कोई आम सड़कें नहीं!”
यहां के माहौल और आवाज़े बाज़ार शब्द की बुनियाद पर ही रचे गए हैं।

शहर हमेशा से आपको आज़ादी से जीने का हक़ देता है लेकिन नियमबद्ध होकर और ये नियमबद्ध शब्द यहां कहीं-न-कहीं धूधला सा दिखता है, इसका मतलब ये नही कि इस जगह को शहर से कोई नाता नही, जुड़ाव तो हर छवि में दिखता है।
लेकिन कुछ पल में, कुछ कल में और कुछ आज में ये जगह कुछ अलग सी दिखती है।

सैफू.

रंगीन होना क्या है?

दिवार पर बनी एक एसी तस्वीर जो न भगवान की है और न ही किसी मजदूर की वो न तो नेता है और न ही कोई भिखारी है पर वो तस्वीर किसी इंसान और मन की धारणा से मिल कर कोई काल्पनिक छवि को उभारती है। वो वोल-पेंटिंग दिवार की एक साइड को रंगीन बनाए हुऐ है पर गली की दिवार की रंगत से हमें क्या सीख मिलती है?
या उस पेंटींग से हमे क्या सीख मिल रही है मुझे समझ नही आता। रोज़ सुबह-शाम आते जाते उसे निहारता हूं,
सोचता हूं कि वो क्या बदलाव ला रही हैं निहारने और रुककर देखने वाले के लिए?
इतना सोचता हूं और अपने सवाल को अपनी ही बगल में दबा आगे बढ़ जाता हूं। क्योंकि हर बार सवाल के हैर-फैर मे मैं खुद हू उलझ जाता हूं और कुछ और ही सोचने लगता हूँ कि वो किसी की जिंदगी मे बदलाव लाए या न लाए पर वो पेंटींग दिवार की रंगत मे ज़रुर बदलाव लाए हुऐ है, रुककर देखने और दिवार पर सोचने का बदलाव लाए हुऐ है, जो हर दिवार के नसीब में कहां।

जैसे मेरे घर की दिवार जिसे मैने आज तक मन लगाकर नहीं निहारा पर जब भी कोई महमान घर पर आता है तो वो इसी चार दिवारी को निहारकर बोलते है घर तो बड़ा अच्छा है।

सैफू.

तुमसे पहले



नज़रे खाली थी तुमसे पहले, प्यास बाक़ी थी तुमसे पहले
तुम मिली तो लगा बहुत कुछ बाक़ी था तुमसे पहले।
काश मैं होता अकेला अगर तुमसे पहले
तो प्यार कर लिया होता मैंने भी तुमसे पहले।

शिकायत न होती अगर मुझे अपने ही बोले शब्दों से
तो आज इज़हार किऐ बैठा होता तुमसे पहले
नज़रों से बोलना, आँखों से सुनने का इशारा देना
आदत सी लगती है तुम्हारी
शौक होता अगर मुझे भी एसा
तो प्यार कर लिया होता तुमसे पहले।

नादान समझता था मैं अपने आपको इन मामलों में
अगर पहले ही भनक पड़ जाती मुझे जवानी की अपने आप में
तो काश कोई और होता मेरी ज़िंदगी में तुमसे पहले।

न जाने वो कैसी जरुरत बन गई थी मेरी
न बात करने पर बोखलाहट सी होती थी
ज्याद बात करने से बातों का सिलसिला खत्म सा लगता था
फिर भी मन में था- बात खत्म नहीं करुंगा उसके कॉल काटने से पहले।

मिलती थी जब भी तो फरमाईशों से झोली भर देती थी मेरी
मैं समझता रहा उसे, वो बोली एक दिन फोन पर
कुछ तो फाएदा हो मेरा, तुम्हारे रूठ जाने से पहले।

बे-फज़ूल की बातों से वक़्त गुज़ारते रहे हम साथ में
समझ नहीं आता- इन बातों का अन्त क्या है?
जिस दिन तुम्हें समझ आ जाए तो बताना ज़रूर
इस किस्से को खत्म करुंगा तुमसे पहले।

saifu.