"तबलची"



साबिर भाई छोटी उम्र से ही तबला बजाते आए है, कई तरह की कव्वाली प्रोग्रामो और ढेरों मुशाएरो मे अपने तबले की थाप से अपनी पहचान लोगों के दिलों-दिमाग मे उतार चुके है। जिसके बारे मे अक्सर वो बताते भी है और अपने संकलन से कुछ न कुछ उठा कर सुनाते भी रहते है। उन्हे अपनी बजाई हर ताल को सुनना और सुनाना अच्छा लगता है क्योंकि अब सिर्फ सुनने की ही ताकत रह गयी है उनके शरीर मे और सुनने की लालसा।

दीवार के एक कोने मे लटका उनका सबसे बेहतरीन तबला और उसके नीचे दराज़ मे भरे उनके छोटे-बड़े, टूटे-फूटे पुराने धूल जमे तबले, इससे एक बात तो साफ हो गयी के आज भी वो अपने हाथो को सकून देने की नहीं सोचते, तबला बजे या न बजे उसे अपनी कुंडली मे दबा वो अपने हाथों की खुजली तो मिटा ही लेते है, इसी बहाने वो अपने तबले पर जमी धूल को भी साफ करते रहते है।

तबला बजाना उनका पैदाईशी हुनर है, बचपन मे ही उन्हे तबलची नाम दे दिया गया था उनकी आदतों और हरकतों की वजह से, उनकी उंगलिया जिस किसी भी धुन को सुनले तो उंगलिया खुद-ब-खुद हरकत करने लगती है यहा तक कि अगर कोई भी युही बैठा गुनगुना रहा हो तो वो हल्की-हल्की धुन मे ताल छेड़ देते है।

अमुमन हम देखते है कि जिस किसी को भी अपने हुनर मे महारत हासिल होती है वो अपने शर्म के पर्दे अक्सर ऊपर चढा कर रखता है क्योंकि हुनर मे अपने आप को ज़ाहिर करना ही महफिल मे छा जाना होता है कहते हेना : जिसने की शर्म, उसके फूटे कर्म...

उनका कहना है कि वैसे तो उनकी शागिर्दी मे उस्तादों की कमी नहीं है लेकिन उनको तबला सिखाने वाला, उनको ताल की समझ देने वाला, उँगलियों के कंट्रोल को सिखाने वाला कोई नहीं था। जब किसी ने कुछ सिखाया तो हर बार एक नयी ताल को जोड़ना सिखाया, धुन को उठाना सिखाया, गीत से जोड़ना सिखाया और ऐसे ही सीखते-सिखाते उनके सामने एक महफिल जमने लगी, मुलाकाती चहरों मे एक डिमांड दिखने लगी।

धीरे-धीरे लोग अब उन्हे और उनके शौकियाने मिजाज को भी पसंद करने लगे थे क्योंकि उनकी आदत थी- उठती हुयी आवाज़ मे दम भरना और थमते हुये आगाज को अपने फनकार से सजा देना, उन्हे शुरू से ही माहोल पर छा जाने का बहुत शोक था क्योंकि वो अपने स्कूल या यार दोस्तों मे भी जब ताल छेड़ते थे तो सबकी वाह-वाही और तालियों की गूंज सुनकर अक्सर उन्हे बहुत अच्छा लगता था जिससे की उन्हे अगली बार कुछ नया सीखने और पेश करने के लिए नयी तैयारी करने का मौका मिलता था...

घर आकर वो फिल्मी गाने सुनते या पापा की जमा उन सीडियो मे से कई एसे क़व्वालो की कवाली सुनते जिसमे कई मर्तबा उनके अब्बू ने भी काम किया था और सुनते-सुनते एक बार अपने ज़हन मे रट्टा मार लेते और उसमे खो जाते जिससे की उनके तबले की आवाज़ और मन की आवाज़ के बीच कोई गेप नहीं बचे। होठों के हिलने से लेकर उँगलियों के हिलने तक का एक अच्छा ताल मेल बना लिया करते थे।

उस वक़्त मे तबला बजाना एक हुनर वाला काम माना जाता था बचपन मे यार-दोस्तों के घर मे जब कोई पार्टी वगेरह होती थी तो घर वाले ज़ोर-ज़बरदस्ती करके उनसे माहोल बनाने को कहते- कहते की तुम बजाओ हम सब गाएँगे।

महफिल मे अपने होने की वजह को वो लोगों के चहरों और उनकी लचीली बातों मे टटोलते और सबको खुशी देने के लिए अपनी उँगलियों को तैयार करते और पास पड़े किसी भी बाल्टी-भगोने को अपनी पैरो की कुंडली मे दबा शुरू हो जाया करते,

उनको पता होता था कि इस तरह बाल्टी-भगोने बजाने से वो अपनी उँगलियों को सिर्फ थकाएंगे और कुछ नहीं लेकिन माहोल की गर्माहट और परिवार वालों की गुजारिश उन्हे इस तरह समा बांधने पर मजबूर कर देती थी। एक तरफ औरतों की आवाज़ मे धीमी धीमी सी लेय उठती और दोसरी तरफ उनकी उंगलिया थिरकती और जैसे ही सबकी आवाज़ एक साथ गूंज बन कर एक दूसरे के चेहरे पर किलकारी लाती वैसे ही उन्हे तेज़ी देने के लिए उनका थरथराना ज़ोर पकड़ लेता, डब्बे-बाल्टी-भगोने से ढ़ूम्म-ढ़म-धीन,धड़ाम-ठक-ठुक-टक-पिट आवाज़ चाहे कैसी भी हो कोई फर्क नहीं पड़ता बस उस मजमे से उठती आवाज़ के साथ एक संतुलन बन रहा हो।

लोग सिर्फ मज़ा चाहते है जिसे देने की तमन्ना मे उन्होने हमेशा कोई न कोई दिलचस्प धुन को या अंदाज़ को अपनाया और पेश किया, सबको अगर मज़ा आया हो तो तालियाँ बजा कर उन्हे फिर एक बार कुछ नया करने का मौका ज़रूर दें....