सफ़र पटियाली ,

आस-पास का माहौल...


अकसर मैं अपना कुछ समय पटियाली चौराहे की चाय की दुकान पर बैठकर गुज़ारता हूँ और हमेशा की तरह वो समय रात का ही होता है 6 से 8 के बीच का जिसमे में खुद को लोगों के बीच रख पाने का समय निकाल लेता हू एसे मे तरह-तरह के लोगों से और उनके अपनी जगह को देखने के नज़रियों से मैं मुखातिब होता रहता हूँ जिससे मुझे जगह में कब, कहाँ और कैसे पैश आना है ये समझ बनती रहती है हर किसी की बात में एक नई सीख और सलाह का एतराम करना बखुबी दिमाग में बैठ जाता है और हँसने-हँसाने के साथ-साथ जगह से जुड़े किस्से और पहेलियाँ सुनने को मिलती है, एसा लगता है जैसे यहां का माहौल मुझे खुद के साथ जोड़ने की कोशिश कर रहा हो। चाय की दुकान का माहौल यहां के सबसे भरे हुए माहौल मे से एक है जहां तरह-तरह के लोग अपनी डेरी जमा लेते है रात के समय मे चाय की दुकान पर ही सबसे ज़्यादा रोनक देखने को मिलती है सबसे ज़्यादा रोनक का मतलब दुकान के बाहर लटका एक बेटरी से चलने वाला बल्ब जो और कही देखने को नही मिलता।


यहां रात भी तो जल्दी हो जाती है सिर्फ 7 बजे ही अंधेरा घर, गलियों, चौराहों पर अपना कब्ज़ा कर लेता है और लोग अंधेरे से चहरा छुपाए अपने-अपने घरों मे ही रहते है। जरूरत मंदो का घरों से बाहर निकलना मुनासिब है जिससे कि रात मे कोई चलता हुए दिखे तो दहशत का साया मन मे उतर आता है एसे मे या तो उलटे पैरो भागने का मन करता है या फिर अपने मन को हाथों की मुठ्ठियों मे दबाए- दुआ या राम-राम जपने का समय करीब आ जाता है।


चाय की दुकान ठीक उस जगह है जहां बसों के रुकने का ठिकाना है बस आती है रुकती है और 5 मिनट मे निकल जाती है उसके बाद घंटों का इंतज़ार क्योंकि यहां सफर की बहुत मारा-मारी है दिन में लोग यहां चलने वाली जीप गाड़ियों का सहारा लेकर अपने-अपने ठिकानों तक पहुच जाते हैं, जिसमे बहुत दिक्कत सहनी पड़ती है। यहां के अड्डे पर जीप गाड़ियां नम्बर से चलती हैं।


हर एक गाड़ी का नम्बर आता है और हर नम्बर के लिए गाड़ी को घंटो खड़ा रहना पड़ता है और जब उनका नम्बर आता है तो वो दिन की दिहाड़ी बनाने के लिए अपनी गाड़ी फुल करके चलते हैं और फुल ही नही बल्की ‌‌‌‍‌ओवर लोड करके चलते हैं। जीप के मिताबिक उसमे ज़्यादा से ज़्यादा 8 सवारी और एक ड्राइवर बैठ सकता है लेकिन यहां की जीप में जब तक 18 से 20 सवारी चड़ नही जाती वो आगे नही बढ़ती क्योंकि यहां बैठकर सफर करने का नियम नही है यहां फंसकर, खिसककर, लटककर छतों पर चड़कर सफर करने का नियम लागू है। एसा नही है कि इस सफर से लोग सहमत हैं, यहां आए दिन खिसयाते लोग ड्राइवर पर चड़ जाते है लेकिन ड्राइवर भी अपनी लाचारी सुना कर इस बहस से कट जाता है ( भाई गाड़ी चलेगी लेकिन जब तक हिसाब नही बनेगा कैसे चलाऊ, डिज़ल के पैसे, रोड के ठेके के पैसे और अपनी दिहाड़ी जब तक नही बनेगी मैं गाड़ी चलाकर क्या करूंगा, अगर किसी को जल्दी हो रही हो तो वो उतर सकता है)


यहां सफर तय करने के लिए इंतज़ार करना बैकार है क्योंकि यही एक मात्र साधन है 15-16 कि.मि का रास्ता तय करने का। अकसर लोग किलस कर उतर जाते हैं और आती-जाती गाड़ियों को हाथ देकर रोकने की कोशिश करते हैं कोई ट्रक-टेम्पों दिख जाता है तो उस पर जैसे-तैसे चड़ने का इरादा बना लेते हैं क्योंकि यहा कोई भी गाड़ी रुकने को तैय्यार नही होती क्योंकि उन्हें मालूम होता है कि ये सवारी इस ठेके की है यहां गाड़ी रोकी तो ठेके के मालिक से हातापाई तक हो सकती है।


एसे में सवारी के पास कोई और रास्ता नही बचता और घिच-पिच करती इस जीप में ही सफर करना पड़ता है। मेरे साथ ये रोज़ का किस्सा है सुबह जीप की छत पर बैठकर ओफिस पहुचना और रात को टाइम से बस को पकड़ना वरना आने का कोई साधन नही है क्योंकि रात मे कोई जीप या ट्रक-टेम्पों नही चलते। पटियाली चौक पर बसें रुकने का समय – सुबह 9 बजे लोहारी खेड़ा वाली, दोपहर 2 बजे अली गंज वाली, शाम 7.30 बजे शिवारा वाली,और रात 8.30 बजे भरगैन वाली आखरी, ये सब दिशाए पटियाली से होकर गुज़रती हैं। मुझे शाम वाली गाड़ी से निकलना होता है क्योंकि उसके बाद पटियाली में वक़्त गुज़ारना बहुत मुश्किल है सड़कों पर लोग नही दिखते, बाज़ार मे भीड़ नही दिखती, चारों तरफ बस अंधेरा और उस अंधेरे मे टिम-टिमाता चाय वाले का बेटरी बल्ब और पास खड़ी एक अन्डे आमलेट वाले की रेड़ी जो उसी बल्ब के सहारे उस अंधयारी सड़क पर खड़ा है, कोई एक-आद ग्राहक आता ही रहता है जिससे उसकी कुछ घंटे खड़े रहने की हिम्मत बनी रहती है।


जैसे ही गिनती-चुनती के लोग भी घरों की तरह रूख कर लेते है वैसे ही सिमटने का दौर शुरू हो जाता है 9 साडे 9 आखरी टाइम माना जाता है जिस वक़्त कोई भी दिखाई नही देता ना लोग और ना वो टिम-टिमाता बल्ब आखिर बैटरी भी कब तक बल्ब जलाएगी वो भी कुछ घंटो तक अंधेरे से कुछ लोगों को बचाती है उसके बाद अंधेरा उसे भी अपनी चपेट मे ले सो जाता है सब के साथ।


सबके सो जाने के बाद इलाके मे लाइट आती है ठीक रात 11 बजे गिने-चुने लोगों के घरों से टि.वी चलने की आवाज़ों से ये महसूस होता है कि ये इंतज़ार में थे खुद को बोरियत से बाहर लाने के लिए क्योंकि अंधेरा सिर्फ डर ही ही नही होता। कुछ लोग अंधेरे मे खुद को उतार लेते है और सामना करते है उस ओझलपन का जिसमे कुछ दिखाई नही देता जिसमे एक छवि दम से खड़ी होती है दोनो ही जीदार है और दोनों ही एक-दूसरे को डराने का दम रखते है जिसकी हिम्मत 11 बजे तक टिक जाए वो विजेता क्योंकि 11 बजे हर घर का एक बल्ब जरूर जलता है और हज़ारों बल्ब की रोशनी के आगे जो बचा वो सकून में।


सैफू .

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