जब एक दूसरे की सांस से जगह हमेशा ज़िंदा रहने का मुकाम बना लेती है तो उस जगह का दम तोड़ना या कुछ घंटों के लिए जिंदा होने की मौज़ूदगी में रहना मुश्किल हो जाता है।
उसके बीच उस जगह को कौन उस जगह के होने की मौजूदगी में रखता है, चबूतरे के मालिक को कोई लैना देना नहीं।
अब वहां कोई रात के 2 बज़े तक चाय का ठिया लगाए या अण्डे-पराठे की रेड़ी। वहां लगने वाली भीड़ उस जगह के आकर्षण के आकार को और फैलाती रहती है।
आप यहां एक दूसरे को देखकर उसके जैसा रंग अपना सकते हो, क्योंकि वो जगह ही बनी हुई है एक दूसरे के रंग से, कोई अपना रंग लेकर आता है तो कोई अपना रंग भूल किसी और के रंग में रंग जाता है। कोई अपनी जगह में रहने की हिदायत देता नज़र आता है, तो किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता कोई कुछ भी करे उनका मानना है कि जैसा करेगा वैसा भुकतेगा।
हंसी-मज़ाक करते रहना और 5-10 रू के पीछे इन जगहों के हसीन पलों को छोड़ना कोई नहीं चाहता। पर ऐसे भी लोग हैं जो मानते हैं ये नशा है, जुआ है अपनी जिंदगी के साथ, अपने वक्त के साथ।
वो चाहते हैं कि वो समय की कदर करें और अपना समय बरबाद करने से बहतर किसी काम में लगाऐं, पर उस जगह में आ रहे लोग इन बातों से कहां प्रभावित होने वाले, वो जानते हैं तो बस...
"कुछ पल की जिंदगी है, आज है कल नहीं तो कुछ पल अपने लिए ही सही" जिसमें मैं हूँ, मेरे दोस्त हों, मेरा अंदाज़ हो, हमारी हँसी हो, एक-दूसरे का सुनना सुनाना हो, कभी सलाह मशवरा हो तो कभी-कभी बस यूंही आना हो।
पर कुछ पल हों जो अपने काम से परे हों, घर-परिवार से परे हो, करीयर की टेंशन से परे हो और उसमें हो वो जो मज़ा भी दे और खुशी भी, जिसमें बार-बार जाना कभी बोरियत न बने, बने तो बस दुबारा बार-बार जाने का नशा, रोज़ अलग मज़े का नशा।
जिसको में उस जगह के आकर्षण के रूप में देखू तो कभी ज़िद या आदत में।
यहां कौन कहां से आता है? क्या करके आता है? कब आता है? और कब तक जाता है?
ये न तो किसी को जानने की जरूरत है और न ही किसी को बताने की...
यहां बहुत कुछ अपनी मर्ज़ी पर निर्भर होता है और बहुत कुछ नहीं भी।
सैफू.
चाहतों से बनी जगह
Thursday, June 04, 2009
Labels: महफिलों के बीच से... , शिरकत
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