बहुत कुछ है इस फैलाव में.

अकसर देखा गया है कि ऐसी जगहें जहां शर्तो का माहौल एक दूसरे पर हावी रहता है वहां लड़कों का हुजुम बना रहता है जिसमें शातिर, चालाक या शर्त जितने का हुनर रखने वालों की भीड़ लगी रहती है। उस भीड़ को देखने वालों का कुछ और ही कहना होता है और खेलने वालों का कुछ और ही। इस कहा-कही में माहौल बत से बत्तर की छवि बना बैठता है समाज में, देखने, सुनने वालों में जिससे समाज दो अलग-अलग सोच से उस जगह को नवाज़ता है।
सुनने,बोलने वाले और देखने,खेलने वाले...

एसी बहुत सी छवियां जो पुरानी दिल्ली को उसी से जानने का नज़रिया देती हैं, पर उसमें उतर कर जीने वालों का कहना है कि "भाई सबके अपने अपने शौक होते हैं, जीने के तरीके होते हैं तो ये हमारा तरीका समझलो" और "ये तो खैल है हार-जीत चलती रहती है, उठना बैठना है जिससे टाइम पास हो जाता है।”
एसे बहुत से लोग हैं यहां जो इस जगह की अजीब सी रीत पर अपनी बात रखने से नही झिझकते, कोई यहां के माहौल से तंग है तो कुछ यहां के बरताव से, किसी को इस तरह के जीवन में जीना अच्छा लगता है तो किसी के पास कोई काम-वाम नहीं है तो उसे ये माहौल अच्छा लगता है मस्तिबाज़ी करने के लिए।
सब किसी न किसी तरह इसे अपनाए बैठे हैं कोई रात को तो कोई अपने काम से बचाया हुआ कुछ वक्त देकर।

गलियों और चौराहों पर टिकी नज़रें कभी तो दुआ-सलाम में झुकती नज़र आती हैं तो कभी वहां बना मजमा आपको भी शरीक होने का आमंत्रण देता नज़र आता है पर ये दुआ-सलाम और जुड़ने का आमंत्रण सिर्फ़ हमउम्र लड़कों तक ही सीमित है, क्योंकि यहां का बाहर लड़कों के लिए एक ऐसा स्पेस है जिसमें रहना, खड़ा होना, मीटिंग करना, खाना-पीना, बातें करना बिल्कुल ऐसा है जैसे वो जगह उनकी अपनी हो।
जगह से अपनापन बहुत है यहां के लोगों में जिसका आस-पास उनके स्वाद से जुड़ा हो, पसन्द से जुड़ा हो, या दोस्तों से जुड़ा हो।

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