राहों से अपनी पसन्द की चिज़ों को चुनकर इकठ्ठा करना और अपना घर तैयार करना।
यही तरीका है केरम क्लब के बनने का जिसमें क्लब का मालिक अपनी मर्ज़ी से क्लब को किसी तैय्यारी में सजाता है।
पसन्द न पसन्द आर्कषण के मुताबिक माहौलों को देखकर तैयार करता। जहाँ माहौल टाईम-पास होने का या करने का समय नहीं देता वहाँ केरम जैसे टाईम-पास खेलों को जगह मिल जाती है। जिसमें महफिल बनती, जुड़ती, संवर कर अपना खेल पैना करती नज़र आती है। खेल को पैना करना और उस खेल को बनाए रखने की होड़ में महफिलें इन जगहों को अपनी रोज़मर्रा में जोड़ लेती है।
एक केरम क्लब अपनी लम्बाई-चौड़ाई को जब तक लोगों की मौजूदगी से भर नहीं लेता तब तक कैरम क्लब खाली सा लगता है पर जब भीड़ होती है तो जगह का मालिक अपनी बनावटी दुनिया से खुश हो जाता है।
दो कैरम बोर्डो का यह महकमा सिमटता और अपने में सबको समेटता सा लगता है।
पर सब भूल लोग अपने हुनर को दिखाने में लग जाते हैं जिसमें से अनेक परछाईयाँ अपना प्रतिबिम्ब छोड़ चली जाती हैं। जिनकी छोड़ी गई धूल हर कोने में लगी दिखती है। वो कोना उनकी याद के साथ तैयार हो कर कुछ पलों को याद करने का रुप बन जाता है।
हर किसी के पास अपने समय का चक़्कर अपने हाथ की उंगलियों पर गढ़ा है। जिसमें से हर उंगली अपनी एक प्रतिक्रिया में मशरुफ़ नज़र आती है। जिसके खाली स्पेस में केरम जेसा खेल अपना भराव बनाए हुए है।
इस बनने की शुरूआत कैसे हुई?
Saturday, March 14, 2009
Labels: देखा-देखी , महफिलों के बीच से...
1 comments:
बहुत रोचक जानकारी। रोचक हो भी क्यों न आप कोई साधारण व्यक्तित्व है भी नहीं। चन्द लाईनों ने आपका मुरीद बना दिया।
Post a Comment