एसा हमेशा से देखा गया है कि घूमने वाले के मन में एक लालसा होती है शहर को भीड़ में देखने की, वो भीड़ जो उसको भी अपने आप में समेट कर सामने वाले के लिए सिर्फ एक ही नाम छोड़ता है "भीड़"।
इसमे कई चहरे, कई मज़हब और कई तरह के माहौल जो कहीं-न-कहीं एक खाचे में अपने आपको छुपाए बैठे हैं जिसकी परख आप भी में उतरकर ही समझ पाते हो।
पुरानी दिल्ली- जो पहचानी जाती है भीड़ से, जिसे नवाज़ा जाता है यहां के माहौलों से, जिसे याद रखा जाता है यहां के चहरों और जगहों से, जिसे सुनाया जाता है यहां की आपसी बातों और समय से।
अपने आपको कई तरह के बदलावों में संजोती ये जगह कभी तो बदलावों को स्वीकार कर लेती है तो कभी बदलाव में जीने से किसी एसे डर को जोड़कर छोड़ देती है जिससे पुरानी दिल्ली हमेशा से लड़ती आई है- डर है खासियत के खो जाने का, डर है ज़हन से नाम मिट जाने का, डर है याद रखने की वजह बदल जाने का।
पर पुरानी दिल्ली की वाह-वाह आज भी यूहीं नहीं है! यहां के लोगों ने इसे हमेशा से रंगीनियत में रखा है समाज के साथ एक लम्बे समय से बहस में रहे हैं।
" ये बाज़ार है कोई आम सड़कें नहीं!”
यहां के माहौल और आवाज़े बाज़ार शब्द की बुनियाद पर ही रचे गए हैं।
शहर हमेशा से आपको आज़ादी से जीने का हक़ देता है लेकिन नियमबद्ध होकर और ये नियमबद्ध शब्द यहां कहीं-न-कहीं धूधला सा दिखता है, इसका मतलब ये नही कि इस जगह को शहर से कोई नाता नही, जुड़ाव तो हर छवि में दिखता है।
लेकिन कुछ पल में, कुछ कल में और कुछ आज में ये जगह कुछ अलग सी दिखती है।
सैफू.
वाह-वाह आज भी यूहीं नहीं है!
Monday, November 23, 2009
1 comments:
मै रश्मि जी के ब्लॉग से यहाँ पहुंचा ..तो पुरानी दिल्ली मे अपने आप को पाया .. मैने भी पुरानी दिल्ली अपने तरीके से घूमी है .. अब भी बहुत सी यादे है वहाँ की , यादों की उन गलियों मे भटकना अच्छा लगा
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