दिवार पर बनी एक एसी तस्वीर जो न भगवान की है और न ही किसी मजदूर की वो न तो नेता है और न ही कोई भिखारी है पर वो तस्वीर किसी इंसान और मन की धारणा से मिल कर कोई काल्पनिक छवि को उभारती है। वो वोल-पेंटिंग दिवार की एक साइड को रंगीन बनाए हुऐ है पर गली की दिवार की रंगत से हमें क्या सीख मिलती है?
या उस पेंटींग से हमे क्या सीख मिल रही है मुझे समझ नही आता। रोज़ सुबह-शाम आते जाते उसे निहारता हूं,
सोचता हूं कि वो क्या बदलाव ला रही हैं निहारने और रुककर देखने वाले के लिए?
इतना सोचता हूं और अपने सवाल को अपनी ही बगल में दबा आगे बढ़ जाता हूं। क्योंकि हर बार सवाल के हैर-फैर मे मैं खुद हू उलझ जाता हूं और कुछ और ही सोचने लगता हूँ कि वो किसी की जिंदगी मे बदलाव लाए या न लाए पर वो पेंटींग दिवार की रंगत मे ज़रुर बदलाव लाए हुऐ है, रुककर देखने और दिवार पर सोचने का बदलाव लाए हुऐ है, जो हर दिवार के नसीब में कहां।
जैसे मेरे घर की दिवार जिसे मैने आज तक मन लगाकर नहीं निहारा पर जब भी कोई महमान घर पर आता है तो वो इसी चार दिवारी को निहारकर बोलते है घर तो बड़ा अच्छा है।
सैफू.
रंगीन होना क्या है?
Thursday, November 12, 2009
1 comments:
deewar par ek taraf rang , ek taraf badrang jivan ke bahut sare satya ko drishtigat karta hai....ameer-gareeb, unch-neech,samany-asamany........
achha hai jo prashn ko bagal mein lekar aage badh jate hain
Post a Comment