चाय, बातचीत और रोज़

कई चलती कहानियों, बातों और किस्सो को अपने मे समेटे ये चाय की दुकाने हमसे भी हमारे रोज़ के कुछ मिनट मांग बैठती ह। इसका लुभावक तरीका और खुला मिज़ाज़ अपनी ओर खैंच लेता है। इसकी खुद की कहानी में कई जोड़ हैं जो आता है वो अपना कुछ टाईम इसमे जोड़कर इसकी डोर को और लम्बा कर देता है।

कई सालों से लोगों के बीच उसी पुराने अंदाज़ में आज भी ये दुकान उसी तरह पेश आती है जैसे बीते कल मे साथ थी। यहां आते लोग कभी-कभी कह बैठते है कि "हम यहां तब से आते है जब यहां 1 रू॰ की चाय मिला करती थी, आज 5 रू॰ की चाय है पर अब भी वैसे ही चाय पीते हैं जैसे 1 रू॰ में पिया करते थे।"
"सच बताऊ तो चाय-वाय तो बस एक बहाना है बस यहां बैठने का जो मज़ा है जो हमारी सालों की बैठक है, वो मज़ा और कहीं नही"
इनका नाम मौ॰ अय्यूब है कम से कम 45 साल के लगते हैं, इनकी बातचीत में बहुत मिठास है और इनकी मिठास की तारीफ तो दुकान के मालिक फिरोज़ भाई भी करते हैं। इनकी और अय्यूब भाई की खूब पटती है, ये सालों से इसी मिठास को अपनी आपसी बातचीत मे बरकरार रख पाऐ हैं।

अय्यूब भाई आज भी आऐ हुऐ थे हमारे आने से पहले ही वो कुर्सी पर अपने कुर्ते को उडेसे बैठे थे। हम तीन लोग सलीम, इशान और मैं रोज़ रात 10 बजे के बाद चितली क़बर चौक पर चाय पीने जाते हैं।
चितली क़बर चौक से अंदर होकर हवैली आज़म खां में ये चाय की दुकान है। अय्यूब भाई हमेशा केश-काउंटर के बराबर वाली कुर्सी पर ही बैठते है जिससे कि बातचीत का सिलसिला लगातार बना रहे।
आज भी वो वहीं बैठे थे, हम तीनों भी उस चार लोगों को समेट लेने वाली टेबल मे सिमट गऐ, अय्यूब भाई हमारे साथ और मेरे सामने वाली कुर्सी पर बैठै थे।
अय्यूब भाई : यार आज घर में बड़ी किच-पिच हो रही थी, छोटी बहू फज़ूली बात पर हंगामा मचाऐ हुऐ है, अरे ये भी कोई बात होती है?
दुकान का मालिक जिनका नाम सिराज है।
सिराज भाई : अच्छा?
उनके अच्छा बोलते ही अय्यूब भाई, सिराज भाई के कान मे कुसुर-फुसुर करने लगे।
इशान सलीम से बोला कि यार ये बताओ कि आज चाय कौन पिला रहा है?
मेरा सारा ध्यान अय्यूब भाई पर था कि यही तो थे वो जो उस दिन कह रहे थे कि मैं यहां तब से आता हूं जब यहां 1 रू॰ की चाय मिला करती थी। उनको देखकर लगा कि अय्यूब भाई का यहां से चाय का कोई रिश्ता नहीं है और ना ही जगह का कोई आकर्षण इन्हे यहां खैंचता है, इनका और भाई फिरोज़ का आपसी रिश्ता ही एक-दूसरे को बांधे हुऐ हैं और सुनने-सुनाने का ये रिश्ता सालों से महफूज़ है लेकिन सिर्फ इस जगह में।
तभी सलीम बोला भाई तू पिला रहा हे चाय?
मैं : हां बनवा लो दो बटा तीन पर मेरे पास सिर्फ़ 7 रू॰ हैं, 3 रू॰ कोई ओर देना।

दुकान ज्यादा बड़ी नही है, चार टेबल और एक टेबल पर चार लोग, मतलब 16 शख्स एक साथ इस महफिल मे शरीक हो सकते हैं। कोई नया डिज़ाइन नहीं है यहां वही पुरानी टेबल-कुर्सियां से सजा माहौल, वही सालों पुराना काउंटर और वही पुरानी दाना-दाना करके बनाई हुई पब्लिक।

तीन कर्मचारी...
पहला : 17-18 साल का लड़का, चाय का काउंटर संभालता है
दूसरा : 12-13 साल का बचपन, पानी के गिलास आते ही आगे रखना और चाय के झूटे गिलास रखने-उठाने का काम करता है।
तीसरा : 40 से 45 साल के उम्रदराज़ ओदे के साथ, वो हर आने वाले का स्वागत उनसे से पूछकर करते है कि
"कितनी चाय ?" वो ओर्डर लेने क काम करते है, इन्ही तीनो का एक काम और होता है बाहर की पब्लिक को संभालना जिसमे दुकान, ठिऐ, और कहीं किसी नुक्कड़ पर लगे मजमे शामिल होते हैं।

सभी कुछ एक आम चाय की दुकान की तरह है जहां लोगो का रुकना-बाहर निकलना चलता रहता है। पर फिर कही ओर जाने का मन नहीं करता। रोज़ इन्ही टेबलों पर टिकाने का मन बनाऐ हम घर से निकल पड़ते हैं।
यही सोच कर कि अपने अड्डे पर चलकर चाय पियेंगे।



सैफू.

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