मेरी छोटी पैंट की जैब, जिसमें मुझे आज एक सिक्क़ा मिला थोड़ा ज़ग खाया हुआ और बहुत पुराना, ये उस जैब से मिला जिसमें पैसे कम और वीडियो गैम के सिक्क़े ज्यादा हुआ करते थे। एक जैब में सिक्क़े और एक जैब में चीज़ (टोफियाँ,चूरन) हुआ करती थी और शर्ट की जैब हमेशा खाली, पता नही क्यूं मैं उस जैब में कुछ नहीं रखता था?
ये सवाल तो कभी मैंने अपने बचपन से भी नहीं किया और न ही उसकी कोई जरूरत थी।
मुझे तो बस अपनी पैंट की उन दो जैबों से मतलब था जो कभी खाली नही रहती थी क्योंकि उस वक्त मेरी अम्मी की दी हुई वो अठ्ठन्नी ही काफी हुआ करती थी मेरी जैबें भरने के लिए और बाक़ी में अपने अब्बू से मांग लिया करता था। इस तरह मुँह बनाकर कि जैसे मुझे आज किसी ने पैसे ही नहीं दिये, तब मुझे मेरे अब्बू भी एक रूपया या अठ्ठन्नी दे देते थे और उस एक या ढ़ेढ रूपय में मैं अपनी दिनचर्या बड़ी खुशी-खुशी गुज़ारता था।
मुझे याद हैं वो दिन जब मैं वीडियों गैम की मार्किट में सुबह से शाम कर दिया करता था
सन् 1990-92 के वो दिन और शामें मुझे बखुबी याद रहते हैं, जब मैं स्कूल का एक रूपया भी संभाल कर रख लिया करता था और घर आते ही मेरा सारा ध्यान वहीं लग जाता था कि मैं कब और कैसे घर से निकल कर वीडियो गैम की दुकान में पहुच जाऊ।
बाहर आते ही मैं अपनी जैब टोफियों और चूरन से भर लेता और बचा के रखता " अठ्ठन्नी "
जिसमे तीन सिक्क़े मिलते थे। वीडियो गैम की दुकान का आधे से ज्यादा अंश मलवे के ढ़ेर में रहता था और खाली की गई जगह में 10-12 वीडियो गैम की मशीनें लगी रहती थी।
मलवे के लिए कोई छत नहीं थी पर उस दुकानदार ने उन मशीनों के लिए छत बनवा रखी थी पर उसमें एंटर होने के लिए कोई गैट नहीं था।
तीन दिवारी के आगे तीरपाल का परदा लगा रहता था। मानो कोई दुल्हन घूंघट में अपने चहरे को छिपाए बैठी हो।
मैं उस दुकान मे जाते ही बहुत ही खुश होता था जैसे वहां का माहौल ही मेरी जिंदगी का मोल हिस्सा हो। सिक्क़े लेकर मैं किसी ऐसे गैम की तलाश में खड़ा हो जाता जो खाली हो, जिसमें मैं अकेला खेल सकू। वहां हमेशा भीड़ रहती थी खासकर तब जब मैं जाता था दोपहर से शाम के बीच, स्कूल की छुट्टी के बाद। घंटो-घंटो वीडोयो गैम की शक्लों को तकता और जब खाली मिलता तो खेलने का लुत्फ उठाता, मुझे हमेशा अकेले खेलना मतलब वीडियों गैम से चैलेंज़ करने में बड़ा मज़ा आता था पर ज्यादातर मुझे कोई अकेला खेलने नही देता था क्योंकि वहां भीड़ ही इतनी रहती थी कि जिसमें मौका मिले खेललो।
वहां भटकते चहरे हमेशा एक लालसा में मिलते थे कि कोई मिले जिसे हरा सकू या उससे मज़े ले सकू अपने गैम के बल से चहरों के भाव एसे बदलते थे जैसे मिनट से पहले सेकंड की सूई का 60 बार बदलना। मेरे साथ जो भी खेलता हमेशा मेरा गैम ऑवर करके हंसता और कभी कोई गाली बक़ देता तो कोई सर पर हाथ फ़ैर घर जाने को कहता।
कभी भी चैलेंज में जीत नही पाता था मैं और न ही उस वक्त मैं किसी को मना कर पाता था कि मेरे साथ मत खेलो मुझे अकेले खेलनें दो...
कोई मुझसे बड़ा होता था तो कोई हमउम्र सबको खेलनें से मतलब था न कि मुझसे कि मुझे ढ़ग से खेलन आता है या नहीं, बस गैम ऑवर कर दिया करते थे और मैं फिर से किसी मशीन के खाली होने के इंतेज़ार मे लग जाता...
इसलिए मैं ज़्यादातर अपना टाइम दुसरों का गैम एंजोए करने मे ही गुज़ारता था क्योंकि मुझे डर रहता था कि मेरा गैम ऑवर हो जाएगा तो मैं और सिक्क़े कहां से लाउंगा, हमेशा सिक्क़े बचा कर रखता था। इस तरह वक्त गुज़ारना कभी-कभी मुझे नुकसान देता था।
जिसको मैं अपनी गलती नहीं मानता था, जिसकी वज़ह से मुझे घर पर डाट तो कभी-कभी मार भी पड़ती थी।
पर हंसने वाली बात तो ये है कि मैं बाज़ नहीं आता था और वहां रोज़ जाता था डर को डर की शक्ल में छोड़ मैं अपने मज़े को अपनाने उस वीडियो गैम की दुकान पहुँच जाता था।
वो दिन बड़े हसीन पल हुआ करते थे जब मैं अपनी ज़िम्मेदारीयोंऔर रोज़ के खर्चे की समझ से दूर मज़े किया करता था। आज जब मैं उस दुकान में गया और उस दुकानदार से मिला जिसका मैं अब नाम तक नहीं जानता तो उन यादों को ताज़ा करने का मन कर बैठा।
खैर अब भी वो दुकानदार अपनी दुकान को वैसे ही चला रहा है पर अब मेरे बचपन और दुकानदार के साथ-साथ उस जगह की भी शक्ल बदल चुकी है। अब वहां वो मलवा नहीं है, न ही वो तीन दिवारी बची है और न अब यहां सिर्फ़ 10 मशीने हैं। अब ये वो मार्किट नहीं जिसमे मेरा बचपन खेला करता था, आज ये बहुत बड़ी दुकान बन चुकी है। दुकान के ऊपर तीन मंज़ीला बिल्डिंग खड़ी हो गई है, दुकान मे 20 से 25 वीडियो गैम की मशीनें हैं और अब यहां वो अकंल जो पहले दुकानदार हुआ करते थे वो सिर्फ़ बैठे रहते हैं। इतनी भीड़ को संभालने के लिए अब यहां एक काउंटर बना हुआ है जिसमें उनकालड़का बैठता है और पैसे लेकर सिक्क़े देता है।
अब यहां अठ्ठन्नी नहीं चलती पर सिक्क़ा अठ्ठन्नी का ही है एक रुपय के दो सिक्क़े।
पर मेरे पास अब भी वो एक सिक्क़ा है जो मैंने अठ्ठन्नी के तीन में लिया था...
सैफूद्दीन
"बचपन शायद अब भी है मेरे पास”
Friday, January 23, 2009
Labels: यादों की दुनियां...
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