कुछ जगहें...



चलते रास्तों पर अपना एक ठहराव लिए कुछ जगहें जो आपको रुकने-ठहरने का आमंत्रण देतीं हैं।
वो जगहें जो अच्छे-बुरे की परिभाषा को लिए आपको कुछ और समझाने की कोशिश में लगी दिखाई देतीं हैं।
कभी तो वो मंचन बन आपको ऊँचा उठा देतीं हैं तो कभी उस ऊँचाई से धक़्का भी दे सकती हैं।
जगहें जो अपने निरंतर बदलाव के साथ अपनी बदलती परिभाषाओं में आपको समेटती रहतीं हैं।
उस समेटने मे आप उस जगह के एक बदलाव मे गठित नज़र आने लगते हो।
वो गठन जो आपको एक लम्बे समय से अपकी बोलियों में आपको डराता नज़र आता था।
जगहें जो खालीपन और भराव दोनों में ही अपनी एक रोज़र्मरा को लिए जीती चली जाती हैं।
वो कभी सीखने का केन्द्र बन उभरती हैं तो कभी रिश्तों की डोर मज़बूत करती नज़र आती...
अपने बनने और दूसरों के बनने तक यह हमेशा लोगों को सींचती नज़र आती है। लोगों को रियाज़ मे
रखकर यह उनकी एक अलग छवि लोगों के सामने पेश करती हैं।
लोग उस छवि को कुछ और समझ अपने रियाज़ को पक़्का करते रहते हैं। अपनी समझ में जगहों के बीच होने वाले आदान-प्रदान की भावना को भूल वो आपसी समझ की दिवारों में घिरे रह जाते हैं। और बनाते फिरते है ऐसे माहौल जो कभी अच्छे लगते हैं तो कभी उसे बनाने वालों के लिए अच्छा और देखने वालो को लिए कुछ और ही


मनोज

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