इन्तज़ार में नहीं रहती जगह


किसी के
इन्तज़ार में नहीं रहती जगह...
एक-एक कर बनने वाली ये जगहें कभी किसी
एक के जुड़ने के इन्तज़ार में नहीं रहती।
इन्तज़ार करती हैं उसमें बनने वाली टोलियां
अपने आगाज़ के जमने का।
एक दुसरे से मिलकर अपने होने का एहसास दिलाने का।
कभी खेल के रूप में तो कभी अपने अंदाज़ में
जगह को पहचान देने का।

किसी के इन्तज़ार में नहीं रहती जगह...
पर उसमे रहने वाले उसे अपना-अपना कहकर
पुकारनें वाले जरूर इन्तज़ार में रहते हैं,
अपने होने के बहाव को दूर तक फैलाने के लिए,
अपनी चाहत से बनने वाली उस जगह को
किसी की चाहत का हिस्सा बनाने के लिए।

किसी के इन्तज़ार में नहीं रहती जगह...
रहते है वो लोग, जो इन्तज़ार में रहते हैं
अपने साथ जुड़ने वाले साथी को पार्टनर कहने को,
अपने आप में खोने में, समाज क्या होता है? क्या कहता है?
उसकी परिभाषा से दूर अपना उस जगह का
समाज तैयार करने में।

किसी के इन्तज़ार में नहीं रहती जगह...
इन्तज़ार में रहते हैं वो ठहाके जो कभी हां-हां में बाहर आते हैं
तो कभी दबी-दबी सी आवाज़ों में, इन्तज़ार में रहते है वो
जो कहते हैं कि आज का दिन अलग-अलग सा है
पर फिर भी रोज़ की तरह है।
आज रात नींद नहीं आई पर ये तो रोज़ का रोना है।
एक जगह चाहिए जहां वो अलग होकर भी अलग न लगे
और रोज़ का रोना होते हुए भी कुछ अलग हो उस रोने में।

किसी केइन्तज़ार में नहीं रहती जगह...
पर इन्तज़ार में रहते हैं वो जो इसको
अपनी आदत का हिस्सा बना चुके हैं।
इन्तज़ार में रहते हैं उसके शुरू होने के,
पर इन्तज़ार में नही रहती जगह कि मैं कब खुलूंगी?
कब मुझे शुरू किया जाएगा?
इसको शुरू करने वाले इंतेज़ार में रहते हैं कि
अपना भी कोई ठिकाना हो जहां
चार बातें अपनी हों और चार बातें सामने वाले की भी
जिसमें सिर्फ़ बातें ही ना हों,
हो वो जो बातें भी हों और कोई इशारा भी कि
हां है कोई इन्तज़ार जिसके इन्तज़ार में
इस जगह के बनने की शुरूआत हुई।

किसी के इन्तज़ार मे नही रहती जगह ...


सैफूद्दीन

जगह का मालिक

::: भाई आलू के नाम से जाना जाता है पता नही यह उनका नाम है या उनके मोटे शरीर के कारण रख दिया गया है। वो हमेशा नहा-धोकर, सफेद रंग के कपड़ों में अपने कैरम क्लब की नियमित रोज़मर्रा में आने वाले लोगों का स्वागत् करते रहते हैं। उनका यह मेज़बान का काम इस घूमती-फिरती पुरानी दिल्ली में दोपहर के 4 बज़े से रात के 1 बज़े तक चलता है।

जिसके बीच उनका खाना-पीना और सोना सभी उस जगह में होता। इस बीच लोग आते, खेलते और महफिलें जमाते जिसमें भाई आलू भी शरिक होते।
पर भाई आलू को कैरम खेलना नही आता उनका तो शौक़ पंतग उड़ाने का है और उनका वो शौक हमे कैरम क़्लब की दिवारों पर दिखाता है। उन्होने अपने क़्लब की क्रिम सफेदी के ऊपर कई तरह की पतंगें लगा रखी हैं जो उनके बीते समय को कहीं रोकी सी लगती हैं।
उन्हें अपना कैरम क़्लब साफ रखना पसन्द है, पर वो उन्हे भी मना नहीं करते जो अपनी पान की पीकों से दिवारों को गन्दा करते हैं। उनके लिए उन्होने कुछ छोटी बाल्टीयां लगा दी हैं जिसमें वो थूकते और पिचकारियां मारते नज़र आते हैं।
इसी तरह के सारे इन्तेज़ाम भाई आलू ही करते है। जगह उनकी ज़्यादा बड़ी तो नहीं पर उन्होने अपने क़्लब में दो कैरम लगा रखें हैं जिसमें एक बार में आठ लोग खेल सकते हैं। किसी को परेशान किये बीना ही सब अपनी मर्जी का खेल, खेल सकते हैं, हसना, चीखना-चिल्लाना जैसी अव़ाज़ों से वहां की जैसे शान सी बड़ती हो पर अपनी अंदरूनी छवि को हमेशा बाहर से दूर रखती है ये जगह। अपने अन्दर जमी चीज़ों को पिघलनें से पहले ही खत्म कर देती है।


मनोज

कुछ जगहें...



चलते रास्तों पर अपना एक ठहराव लिए कुछ जगहें जो आपको रुकने-ठहरने का आमंत्रण देतीं हैं।
वो जगहें जो अच्छे-बुरे की परिभाषा को लिए आपको कुछ और समझाने की कोशिश में लगी दिखाई देतीं हैं।
कभी तो वो मंचन बन आपको ऊँचा उठा देतीं हैं तो कभी उस ऊँचाई से धक़्का भी दे सकती हैं।
जगहें जो अपने निरंतर बदलाव के साथ अपनी बदलती परिभाषाओं में आपको समेटती रहतीं हैं।
उस समेटने मे आप उस जगह के एक बदलाव मे गठित नज़र आने लगते हो।
वो गठन जो आपको एक लम्बे समय से अपकी बोलियों में आपको डराता नज़र आता था।
जगहें जो खालीपन और भराव दोनों में ही अपनी एक रोज़र्मरा को लिए जीती चली जाती हैं।
वो कभी सीखने का केन्द्र बन उभरती हैं तो कभी रिश्तों की डोर मज़बूत करती नज़र आती...
अपने बनने और दूसरों के बनने तक यह हमेशा लोगों को सींचती नज़र आती है। लोगों को रियाज़ मे
रखकर यह उनकी एक अलग छवि लोगों के सामने पेश करती हैं।
लोग उस छवि को कुछ और समझ अपने रियाज़ को पक़्का करते रहते हैं। अपनी समझ में जगहों के बीच होने वाले आदान-प्रदान की भावना को भूल वो आपसी समझ की दिवारों में घिरे रह जाते हैं। और बनाते फिरते है ऐसे माहौल जो कभी अच्छे लगते हैं तो कभी उसे बनाने वालों के लिए अच्छा और देखने वालो को लिए कुछ और ही


मनोज

"बचपन शायद अब भी है मेरे पास”


मेरी छोटी पैंट की जैब, जिसमें मुझे आज एक सिक्क़ा मिला थोड़ा ज़ग खाया हुआ और बहुत पुराना, ये उस जैब से मिला जिसमें पैसे कम और वीडियो गैम के सिक्क़े ज्यादा हुआ करते थे। एक जैब में सिक्क़े और एक जैब में चीज़ (टोफियाँ,चूरन) हुआ करती थी और शर्ट की जैब हमेशा खाली, पता नही क्यूं मैं उस जैब में कुछ नहीं रखता था?

ये सवाल तो कभी मैंने अपने बचपन से भी नहीं किया और ही उसकी कोई जरूरत थी।
मुझे तो बस अपनी पैंट की उन दो जैबों से मतलब था जो कभी खाली नही रहती थी क्योंकि उस वक्त मेरी अम्मी की दी हुई वो अठ्ठन्नी ही काफी हुआ करती थी मेरी जैबें भरने के लिए और बाक़ी में अपने अब्बू से मांग लिया करता था। इस तरह मुँह बनाकर कि जैसे मुझे आज किसी ने पैसे ही नहीं दिये, तब मुझे मेरे अब्बू भी एक रूपया या अठ्ठन्नी दे देते थे और उस एक या ढ़ेढ रूपय में मैं अपनी दिनचर्या बड़ी खुशी-खुशी गुज़ारता था।

मुझे याद हैं वो दिन जब मैं वीडियों गैम की मार्किट में सुबह से शाम कर दिया करता था
सन् 1990-92 के वो दिन और शामें मुझे बखुबी याद रहते हैं, जब मैं स्कूल का एक रूपया भी संभाल कर रख लिया करता था और घर आते ही मेरा सारा ध्यान वहीं लग जाता था कि मैं कब और कैसे घर से निकल कर वीडियो गैम की दुकान में पहुच जाऊ।

बाहर आते ही मैं अपनी जैब टोफियों और चूरन से भर लेता और बचा के रखता " अठ्ठन्नी "
जिसमे तीन सिक्क़े मिलते थे। वीडियो गैम की दुकान का आधे से ज्यादा अंश मलवे के ढ़ेर में रहता था और खाली की गई जगह में 10-12 वीडियो गैम की मशीनें लगी रहती थी।
मलवे के लिए कोई छत नहीं थी पर उस दुकानदार ने उन मशीनों के लिए छत बनवा रखी थी पर उसमें एंटर होने के लिए कोई गैट नहीं था।
तीन दिवारी के आगे तीरपाल का परदा लगा रहता था। मानो कोई दुल्हन घूंघट में अपने चहरे को छिपाए बैठी हो।
मैं उस दुकान मे जाते ही बहुत ही खुश होता था जैसे वहां का माहौल ही मेरी जिंदगी का मोल हिस्सा हो। सिक्क़े लेकर मैं किसी ऐसे गैम की तलाश में खड़ा हो जाता जो खाली हो, जिसमें मैं अकेला खेल सकू। वहां हमेशा भीड़ रहती थी खासकर तब जब मैं जाता था दोपहर से शाम के बीच, स्कूल की छुट्टी के बाद। घंटो-घंटो वीडोयो गैम की शक्लों को तकता और जब खाली मिलता तो खेलने का लुत्फ उठाता, मुझे हमेशा अकेले खेलना मतलब वीडियों गैम से चैलेंज़ करने में बड़ा मज़ा आता था पर ज्यादातर मुझे कोई अकेला खेलने नही देता था क्योंकि वहां भीड़ ही इतनी रहती थी कि जिसमें मौका मिले खेललो।

वहां भटकते चहरे हमेशा एक लालसा में मिलते थे कि कोई मिले जिसे हरा सकू या उससे मज़े ले सकू अपने गैम के बल से चहरों के भाव एसे बदलते थे जैसे मिनट से पहले सेकंड की सूई का 60 बार बदलना। मेरे साथ जो भी खेलता हमेशा मेरा गैम ऑवर करके हंसता और कभी कोई गाली बक़ देता तो कोई सर पर हाथ फ़ैर घर जाने को कहता।
कभी भी चैलेंज में जीत नही पाता था मैं और ही उस वक्त मैं किसी को मना कर पाता था कि मेरे साथ मत खेलो मुझे अकेले खेलनें दो...

कोई मुझसे बड़ा होता था तो कोई हमउम्र सबको खेलनें से मतलब था कि मुझसे कि मुझे ढ़ग से खेलन आता है या नहीं, बस गैम ऑवर कर दिया करते थे और मैं फिर से किसी मशीन के खाली होने के इंतेज़ार मे लग जाता...
इसलिए मैं ज़्यादातर अपना टाइम दुसरों का गैम एंजोए करने मे ही गुज़ारता था क्योंकि मुझे डर रहता था कि मेरा गैम ऑवर हो जाएगा तो मैं और सिक्क़े कहां से लाउंगा, हमेशा सिक्क़े बचा कर रखता था। इस तरह वक्त गुज़ारना कभी-कभी मुझे नुकसान देता था।
जिसको मैं अपनी गलती नहीं मानता था, जिसकी वज़ह से मुझे घर पर डाट तो कभी-कभी मार भी पड़ती थी।
पर हंसने वाली बात तो ये है कि मैं बाज़ नहीं आता था और वहां रोज़ जाता था डर को डर की शक्ल में छोड़ मैं अपने मज़े को अपनाने उस वीडियो गैम की दुकान पहुँच जाता था।
वो दिन बड़े हसीन पल हुआ करते थे जब मैं अपनी ज़िम्मेदारीयोंऔर रोज़ के खर्चे की समझ से दूर मज़े किया करता था। आज जब मैं उस दुकान में गया और उस दुकानदार से मिला जिसका मैं अब नाम तक नहीं जानता तो उन यादों को ताज़ा करने का मन कर बैठा।

खैर अब भी वो दुकानदार अपनी दुकान को वैसे ही चला रहा है पर अब मेरे बचपन और दुकानदार के साथ-साथ उस जगह की भी शक्ल बदल चुकी है। अब वहां वो मलवा नहीं है, ही वो तीन दिवारी बची है और अब यहां सिर्फ़ 10 मशीने हैं। अब ये वो मार्किट नहीं जिसमे मेरा बचपन खेला करता था, आज ये बहुत बड़ी दुकान बन चुकी है। दुकान के ऊपर तीन मंज़ीला बिल्डिंग खड़ी हो गई है, दुकान मे 20 से 25 वीडियो गैम की मशीनें हैं और अब यहां वो अकंल जो पहले दुकानदार हुआ करते थे वो सिर्फ़ बैठे रहते हैं। इतनी भीड़ को संभालने के लिए अब यहां एक काउंटर बना हुआ है जिसमें उनकालड़का बैठता है और पैसे लेकर सिक्क़े देता है।

अब
यहां अठ्ठन्नी नहीं चलती पर सिक्क़ा अठ्ठन्नी का ही है एक रुपय के दो सिक्क़े।
पर मेरे पास अब भी वो एक सिक्क़ा है जो मैंने अठ्ठन्नी के तीन में लिया था...


सैफूद्दीन

न जाने कहां से लाते हैं ये इतनी बातें...

जहां देखो वहीं बातें, कोई खड़े-खड़े बातों में मगन है तो कोई रिक्शों, चबूतरों, ठैलों और चाय की टेबलों पर, हर कोई एक दूसरे को अपना-अपना समझ उसके आगे अपनी बातों के पिटारे को खोला बैठा है।
पर क्या ये खुलकर बातें कर पाते होंगे?
क्योंकि कहीं कोई अपने चिंतनमनन को गैहराई तक सोच रहा है तो कोई एक दूसरे को देख गाली अपने मुँह से बरसा रहा है, कभी हँसे तो कभी गाली, कभी गाली तो कभी जोर-जोर से हँसें.... तेरी मां की... तेरी बहन की...
और जिसको वो देख कर गालियाँ बक़ रहा था वो उसकी तरफ देखें और हँसनें लगे! न जाने कैसे रिश्तें में बन्धे थे वो जो एक दूसरे को गलत से गलत बात के जवाब में भी सिर्फ़ हंसी दे रहे थे।
पर कोई गाली दे या गहरा चिंतनमनन करे किसी को किसी से कोई लेना-देना नहीं सिर्फ़ अपनी बातों और सुनने वालों के अलावा।

न चाय वाले को किसी से गिला-शिकवा और न वहां खड़े और लड़के-लपाड़ों को.....
लड़के-लपाड़े इसलिए क्योंकि जिस आज़ादी में वो ऐसा व्यवहार कर रहें हैं उसी आज़ादी को वहां खड़ा हर एक शख़्स महसूस कर उस महफिल में शरीक होता है।
और जब यहां कोई उतरता है अपनी मस्ती में तो उसके लिए भी सिर्फ़ उसके सुनने वालों के अलावा कोई माइनें नहीं रखता जगह लोग।
पता नहीं कौन किसके नियमों पर चल रहा है यहां किसी पर पाबंदी तो शायद कुछ नहीं पर यहां सब कुछ करने की आज़ादी भी नहीं है, वो सब कुछ जो समाज की नज़रों में गलत हो न कि सिर्फ़ तुम्हारे घर-परिवार की नज़रों में।
और शायद उसी को मान सब चल भी रहें हैं समाज में कोई ऐसा नियम नहीं है कि :-

: लड़के रात को नहीं जाग सकते ...
: अपने उठने-बैठने से बनाई जगह पर खड़े होकर बातें नहीं कर सकते ...
: गालियां नहीं दे सकते जो किसी को बुरी होकर भी बुरी ना लगती हों ...

ऐसा कोई नियम नहीं है समाज में। पर आपके घर में आपको ऐसा करने पर हमेशा डांटा जाता है और मनादी की जाती है। क्योंकि कोई इसे गलत माने या न माने पर उनका मानना यह है कि उस जगह में बैठना मतलब खरबूजा देख खरबूजे का रंग बदलना।
ये जगह है आज़ादी की जहां मैं भी हूं, आप भी हो और हम भी, कल भी थे, आज भी है और आते रहेंगें, बातें करते रहेंगें।


सैफूद्दीन

मस्तानों का महक़मा

वक्त-बे-वक्त बनती गुच्छों की कहानियों का खुलासा हर टूटे दाने से परखने की कोशिश और सिमटते हुए दायरों को भराव देना क्या यही है वो जगह? जहां अपने बनाए माहौल में किसी का आमंत्रण हैर-फैर करता रहता है। मनचाही मौजूदगी में मिले खुलेपन को वक्त-बे-वक्त थूकता नज़र आता है यह महकमा। किसी की मौजूदगी को कभी स्वीकार कर लेता है तो कभी प्रदूषित शब्दों का प्रयोग कर निकाल फैंकता है, अपनी नज़रों से दूर।

न मानने पर तोहीनें देता है और आपका नामकरण कर आपको जोड़ लेता है! आपकी आदत या आपका स्वभाव समझकर।

लोग बुंद-ब-बुंद बंधते और खैंचने पर टूटते नज़र आते हैं। हर कोई एक खुलेपन और आजादी मिलने वाली जगहों की तलाश में रहता है,वो ही आकर्षण उसे अपनी ओर खैंचकर गोद में बैठाकर आनंद से झूलाता है।
पर इसे पाने की भी केई शर्ते हैं, आजादी से मिले माहौल को आप कैसे स्वीकारते हो?

कभी तो अच्छे होते हो, तो कभी बुरे बन कोने में नज़र आते हो।
अच्छा बनने में पीठ थपथपा सीना चोड़ा कर इकठ्ठा करना वाह-वाही के कॉमेन्ट और बुरे में सज़ा-ए-ढीटकार दोनों को स्वीकारना पड़ता है यहां।

एक बने बनाए माहौल को हम कब स्वीकार लेते हैं?
यह समय सीढी नुमा होता है जिसमे स्टेप-ब-स्टेप कुरेदने के स्वभाव से जानते चले जाते हैं। उस कुरेदेपन से उस जगह मे हम अपनी समझ को और गाढ़ा करते रहते हैं।

उम्र इसमे कोई मायने नही रखती मायने रखता है तो आपका समय जो आप अपनी नियमित रोज़मर्रा में से खैंचकर निकालते हो। वो समय ही आप को जूनियर और सीनियर वाले ओदे पर रखता है।

आप का समय और लोगों से संवाद अपने आपको परखने और लोगों को परखने के मापदण्ड को तैयार करता है।
वो मापदण्ड जो मापने के साथ-साथ आपका एक हिस्सा बन जाता है लोगों को समझने और जानने का। बाहरी दुनियां की रुटीन में कोई न कोई इस मापदण्ड को लिए लोगों से मिलने के अवसरों की तलाश में लगा रहता है। जगह अपनी मौजूदगी को दिखाने के लिए लड़ती रहती है समाज के बनाए नियमों से जो रुढ़ीगणना से गठित है।


मनोज