कौन है।


लकड़ी के ज़ीने पर चढ़ते हुये जब भी कोई घर मे दाखिल होता है तो मानों जैसे सब कुछ भूल कर बस यही ताक मे लग जाती हूँ कि 

 "कौन है"

अब्बा रोज़ जब भी घर मे दाखिल होते है तो उनके ज़ीने पर आते ही उनकी पहचान करने मे कान कभी धोका नहीं खाते क्योंकि उनके घर मे आने का समय और उनके ज़ीने पर चढ़ने का तरीका अकसर मेरे दिमाग मे उनकी इमेज बना देता है कि अब्बा आ रहे है। लेकिन अम्मी हमेशा मुझे अचंभे मे रखती है कि कहीं कोई और तो नहीं क्योंकि वो सीधे ज़ीने पर नहीं चढ़ती कभी किसी से बात करने के लिए रुक जाती हैं तो कभी सास लेने के लिए ज़ीने को पकड़ कर बीच मे ही खड़ी हो जाती है इस वाकये को जानते हुये भी मुझे झांक कर ये पक्का करना ही पड़ता है कि अम्मी ही है न लेकिन छोटा भाई शानू वो तो बहुत ही फर्राटे से ज़ीने पर चढ़ता हुआ आता है उसके घर मे आने की आवाज़ सुनते ही जैसे मुह खुद बोल पड़ता है 
"आ गया कमीने"

घर के किसी भी कौने मे बैठी हुयी हूँ या छत पर कपड़े सूखा रही होती हूँ मेरा सारा ध्यान अक्सर अपने ज़ीने को सुनने मे ही लगा रहता है क्योंकि अम्मी घर मे जीतने भी वक़्त रहती है सिर्फ सोती रहती हैं या फिर टी,वी मे ही मग्न रहती है इसलिए मुझे हर वक़्त यही चिंता रहती है कि कही कोई और ना आ जाए घर मे। दिन भर घर मे कोई नहीं होता अम्मी होती है लेकिन न के बराबर इसलिए हर एक छोटी सी हलचल भी मेरे जहन मे ख्याल बुनने लगती है। कभी छत से, कभी खिड़की से, कभी घर के दरवाजे से अक्सर झांक कर ये पक्का करती हूँ कि सब कुछ ठीक है क्योंकि मुझे घर मे सिर्फ किसी अंजाने के आ जाने का डर नहीं है मुझे अपने आप से जुड़े कई और डर भी सताते रहते है कि कही वो ना आ जाए।

वो अक्सर ऐसे वक़्त पर घर के नीचे चक्कर काटता है जिस वक़्त घर मे कोई नहीं होता अम्मी भी बाज़ार गयी हुयी होती है, अक्सर उसके घर के नीचे मंडराने के एहसास आवाज़ों मे तब्दील होकर मुझे घर मे सुनाई देते है कभी वो किसी डब्बे को बजा कर ये एहसास दिलाता है कि में आ गया हूँ तो कभी अपने साथ के लड़कों से तेज़ आवाज़ मे बात करके, कभी मेरे घर की सीढ़ी पर बार बार पैर मार कर मुझे डराता है कि वो ऊपर आ रहा है। मुझे किसी न किसी बहाने से वो दरवाजे पर बुलाने की हरकते करता रहता है, मैं उससे डरती नहीं लेकिन मुझे डर अपने आपसे लगता है कि अगर किसी दिन मैंने उसे ऊपर बुलाने की हरकत की तो क्या होगा इसलिए हर वक़्त मुझे अपने आप पर काबू रखना होता है क्योंकि घर मे कोई भी कभी भी आ सकता है।

वैसे तो मुझे घर के काम से फुर्सत नहीं मिलती फिर भी जब भी, जितना भी वक़्त मे काम से चुरा पाती हूँ उसको अक्सर अपने घर की चोखाट पर बिता कर गुज़ार देती हूँ ऊपर से गली मे ताक-झाक मे जितना कुछ दिखाई नहीं देता उससे कही ज़्यादा सुनाई देता है आस-पड़ोस के घरों मे चल रहे टी,वी और बच्चो के लड़ने, औरतों के आपस मे बाते करने की आवाज़ें गली को जैसे उसकी आवाज़ देती हुयी सी लगती है।

मैंने मोहल्ले की और भी गलिया देखी है लेकिन हर गली का अपना एक अलग ही साउंड और वॉल्यूम होता है जो कि वहाँ रहने वालों के हिसाब से बनता है किसी गली मे कारखाने ज़्यादा है तो वहाँ हर वक़्त मशीनों और उठा-पटक की आवाज़ें सुनाई देती है, किसी गली मे नल नहीं है तो वहाँ से आती आवाज़ें अकसर पानी को ही कौस रहीं होती हैं, किसी गली के गटर का पत्थर का ढक्कन टूटा हुआ है तो वहाँ से हर गुजरने वाले की आवाज़ उस गली मे गूँजती है, कहीं लड़के खड़े रहते है तो कहीं औरतें घरों के बरामदे मे ही बैठी हुयी दिखती है तो वहाँ से उठने वाली आवाज़ वहाँ की जैसे पहचान को गढ़ती हुयी सी लगती है। क्योंकि जिस दिन ये आवाज़ें गली से गायब हो जाती है तो मानों ये आँखें उन तसवीरों मे झांक रही होती है जो अकसर आवाज़ करती है।
रामज़ानों के दिनों मे मगरीब का वक़्त गली पर ही नहीं बल्कि मुह पर भी ताले लगा देता है, कहा तो ये जाता है कि जब भी आपके कानो मे अज़ान सुनाई दे तो उसे सुनना बहुत ही सवाब का काम होता है, और सुनने के दौरान खलल पैदा करना या बोलना उतना ही गलत समझा जाता है। इसलिए रामज़ानों मे सभी इस बात को मानते हैं, जिसकी वजह से कभी ये एहसास नहीं होता कि हम अकेले ही रोज़ा खोलने बैठे हुये है सब की चुप्पी भी सबके साथ होने का एहसास गली को बाँट रही होती है।

घर मे बिताए दिन और रात को मैं दो अलग पहलुओ से देखती हूँ। दिन मे जब भी कोई ज़ीने पर चड़ता या उतरता है तो कभी ये ख्याल नहीं आता कि कोई और घर मे दाखिल होने के लिए ज़ीने पर चढ़ा है हर किसी के ज़ीने पर चढ़ने कि कोई न कोई तस्वीर दिमाग मे बनी हुयी सी है अकसर हर आवाज़ से जुड़ती किसी न किसी छवि को दिमाग बना ही लेता है कि शायद वो होगा या फिर खाला या मामू होंगे किसी का तेज़ी मे चढ़ना किसी का आहिस्ता से चढ़ना किसी कि चप्पल तो किसी के जूते की आवाज़ किसी अपने के होने का ही एहसास दिलाता है। लेकिन रात को जब सभी घर वाले घर मे ही होते हैं तो भी मेरा दिमाग इधर-उधर से घूम कर ज़ीने पर ही आकार रुक जाता है भले ही कोई आवाज़ न हो लेकिन जहन के ठहराव को अक्सर मैंने अपने ज़ीने पर ही आकार महसूस किया है जैसे ज़ीने पर किसी आवाज़ के होने का इंतज़ार सा कर रहे हो कान।

कई मर्तबा ऐसा होता है कि रात को जब कभी नींद नहीं आती तो मैं बस दीवारों को ही देखती रहती हूँ उन कुछ घंटो मे सबसे ज़्यादा मे सुनने का काम कर रही होती हु, क्योंकि समझ ही नहीं आता कि क्या करू क्या सोचु, बोल सकती नहीं और सुनना रोक सकती नहीं। ऐसे मे ध्यान गली और ज़ीने से हटकर घड़ी की टिक-टिक और चूहों की कुतुर-कुतुर मे कुछ देर के लिए बहकता ज़रूर है लेकिन फिर ज़ीने पर किसी के आहिस्ता से चढ़ने का एहसास होता है। जैसे कोई आवाज़ गली से उठकर ज़ीने पर चढ़ रही हो सिर्फ मुझ तक पहुचने के लिए।
कभी-कभी तो सोचती हूँ कि वो आवाज़ें जो मुझे रात को ज़ीने पर सुनाई देतीं हैं वो सिर्फ और सिर्फ मेरा वहम है और कुछ नहीं। लेकिन दिल है कि मानता नहीं वो ख्याल बुनता है, चाहतें पैदा करता है इसलिए कि मैं ये ना सोचु कि कोई और है ये सोचूँ कि कहीं ये वही तो नहीं।

ऐसा मेरे साथ कई बार हुआ है कि मैं सपने मे किसी को अपने ज़ीने पर चढ़ता हुआ देखती हु और जेसे ही मैं ये जानने के लिए कि कौन है अपने सपने को ज़ूम करती हूँ तो सिर्फ एक कत्थई जूते पहने हुये आदमी के पैर नज़र आते है जिसके ज़ीने पर पैर रखने की हर आहट मेरे दिल को धीरे-धीरे कमजोर करने लगती है। उसका हर एक बढ़ता हुआ कदम मेरे पूरे शरीर को झँझोड़ सा रहा होता है और जैसे ही वो चोखाट पर आकार रुकता है मेरी अक्सर आँख खुल जाती है ये देखने के लिए कि बाहर कौन है ?

मैं बिस्तर मे लेते-लेते ही किसी के दरवाजे के उस पार खड़े होने के एहसास को बिलकुल भी छोड़ नहीं पाती, मेरा डर मेरे शब्दों को जैसे जकड़ लेता है मेरी आवाज़ मेरे हलक मे ही अटक कर रह जाती है। दो-तीन बार तो डर का पारा चड़ जाने पर मैं फिल्मी अंदाज़ की ही तरह चौक कर चिल्लाई भी " कौन है..... " तभी कई सारी आवाज़ें सिर्फ मेरे जहन की उस आहट को मिटाने के लिए मुझे झंझोड़ने लगती है कोई नहीं है, हम सब हैं तो, क्या हुआ, कोई भी तो नहीं है....
घर वालों के पूछने पर भी मैं कभी अपने इस ख्याल को घर वालों के सामने नहीं रख पाती कि मेरे
इस तरह के सपनों के देखने की वजह क्या है क्योंकि बात छुपने के पीछे की वजहें सिर्फ मुझे डराती ही नहीं है मुझे जिंदगी के कुछ नए पहलूओं से भी मुखातिब करतीं है।

पूरे दिन बिताए उन घंटों से ज़्यादा मुझे रात के वो कुछ घंटे सकून से भर देते है जब सभी सो रहे होते है, पापा की खर्राटे, भाई का नींद मे बात करना पंखे का चिर-चिर करते हुये चलते रहना लगता ही नहीं कि इन आवाज़ों से भी शोर होता है इन आवाज़ों के होते हुये भी में रात के सूनेपन को महसूस करती हूँ जिसके दौरान बाकी की आवाज़ें मेरे जहन मे बुदबुदाहट सी करने लगती हैं।
कभी-कभी उन पराई आवाज़ों मे मैं अपने लिए कुछ खुशियाँ तलाश लेती हूँ तो कभी वही पराई आवाज़ें मुझे डरा भी देतीं है समझ नहीं आता कि में इन आवाज़ों से छुटकारा पाने के लिए कोई कडा कदम उठाऊ या फिर इन आवाज़ों को और प्यार दूँ।