सहर की अज़ान



बरकती महीने की इस छाव में हम कितनो की तादात मैं निकल पड़ते है एक मजमा लगाये कि कही तो कोई है जो सुनता है, देखता है, दुःख से निजात और खुशिया देता है... ये सब बाते, किस्से तो हम रमजान के अलावा भी जानते है कि हमारे बीच या हमसे जुदा कोई है जो करता-धर्ता के परिचय से हमारे बीच मुखातिब रहता है.

लेकिन रमजान को मुबारक महिना इसलिए ही कहा गया है कि इस महीने खुदा और इंसान के बीच का फासला कम हो जाता है जिस तरह निगाहें इशारा समझ लेती है उसी तरह इस मुबारक महीने में हर मुसलमान पर बरकतें नाजिल की जाती है मानता हूँ कि रमजान हमे ये मोका देता है कि हम इस वक़्त का फायेदा उठाये और उससे माफ़ी मांगे....
लेकिन अगर आम दिनों या त्योहारों पर खुदा की तिजारत की जाये तो खुदा नाराज़ नहीं होता वो और खुश होगा कि देखी मेरे बन्दे कि नियत ,,, खैर खुदा, खुदा है और बंदा तो बंदा ही है जो मैं और तू के इस खेल में जी रहा है खुदा अपने को तू के तहज़े में सुनना पसंद करता है और बंदा बात करता है तमीज़ और शराफत की,,, ये है खुदा की खुदाई.
दोनों ही खुदाई की पैरवी में लगे पड़े है वो बोले मुझे सुनो तो वो कहे की अरेरेरेरे मुझे भी तो सुनो मैं खुदा नहीं तो क्या हुआ सुनाने के लिए कुछ तो लिए हुए हूँ. दोनों की आवाज़ में कोई फर्क नहीं है कोई भेद नहीं है लेकिन अगर देखा जाये तो अज़ान और गाने की आवाज़ के बीच में सिर्फ सोच का फर्क खड़ा होता है ... कि आवाज़ हमे कहा बुलाती है मैखाने या मस्जिद ?
सुबह कि पहली आवाज़ जो रात के ख़त्म और सुबह के होने का आगाज़ रखती है वो पहल है सहर की अज़ान की जो रोज़ एक ही अंदाज़ लिए हमारे कानो तक आती है और फिर लोट जाती है अगली नमाज़ के इंतज़ार में


आवाजों का साया..


बहुत पुरानी बात है लोगों की कहानियों में ये पुरानी बात आज भी ताज़ा हो उठती है और अगर महसूस किया जाये तो छन-छन की उस आवाज़ का साया हमारे आस-पास मंडराने लगता है।


दरअसल ये आवाज़ पिछल-फैरी के आने की होती थी, लोग अपने बंद दरवाज़ों से ही उसके अपने आस-पास होने का अनुमान लगा लिया करते थे. जो पिछल-फैरी के होने का वजूद हुआ करता था उसकी छन-छन चलने की आवाज़ लोगों के मन में दहशत पैदा करती थी और अगर दादा-दादी की कहानियों में उसे सुने तो बखूबी उस छवि का भी जिक्र किया जाता है कि वो दुल्हन जैसे कपडे पहने होती है, अपने बड़े से आकर के साथ उसकी पायल की आवाज़ कानों में ऐसे गूंजती है जैसे उससे भरी आवाज़ कभी सुनी ही न हो, वो लोगों को बहकाती है, आकर्षित करती है, बहकी-बहकी आवाजों से मदद का वास्ता देकर अपने पास बुलाती है।


ऐसे में उसकी आवाज़ जो दिमाग पर कब्ज़ा कर लेती है उससे कई लोग मारे भी जाते है. लेकिन उसका होना और न होना ऊपर वाले की बनायीं इस कुदरत से ही चलता है दिन में चलती इन तंग गलियों में जितना शोर होता है उतना ही रात के साये में ये गलियां गुप्त अंधेरो में खो जाया करती हैं और जिस तरह अँधेरा अपने आप अपनी जगह बनता है उसी तरह ये छवियाँ भी उसी के बीच अपना वजूद पक्का करती हैं।


ऐसे में उसके दिखने को लेकर इतनी चर्चा नहीं रही जितना की उसकी पायल की छन-छन-छन आवाज़ का डर लोग अपने दिलों में लेकर जीते हैं.

Night show.


ये बात तो अब रोज़ रात होते ही शुरू हो जाती है. कौन समझाए ? कौन कहे इनसे कि आस-पास बहु-बेटियों का घर है ?

यहाँ तो कोई कहने-सुनने सुनने वाला ही नहीं है, रोज़ाना मजमा लगवाना इस आदमी का काम बन गया है.
शीतल जी के घर के नीचे रोज़ पड़ोस के रमेश भाई पीकर हल्ला मचाते हैं, रत के बजे नहीं के शीतल जी का अपने घर की गेलरी से इस तरह का बडबडाना शुरू हो जाता है.

रमेश भाई रोज़ एक ही बात बोल-बोलकर इलाका सर पर उठा लेते हैं- उनकी कोई एक बात नहीं सुनता लेकिन शीतल जी की बात को सुनने के लिए पूरा इलाका इकठ्ठा हो जाता है.

रमेश भाई --- तुम सब मुझे यहाँ से भागना चाहते हो , मैं यहाँ से कही नहीं जाने वाला...
शीतल जी --- जा अपने घर जा, कोई नहीं भगा रहा तुझे- अपने घर जा सोने दे हमे, हम रोज़ यहाँ तेरी गलियां सुनने नहीं बैठे है.
( वो रोज़ाना यही सोचती हैं कि वो बोले, लेकिन अब उनको भी आदत सी हो गयी रमेश भाई की तरह रोज़ इलाके को अपनी आवाज़ सुनाने की )

रमेश भाई --- हाँ तो भगा दो मुझे, मरो मुझे, ये सब मरने के लिए तो आये है , मरो ....भगाओ
शीतल जी --- चला जा, जा- वरना ये सब ही मरेंगे, फजूल में गलियां मत बका कर यहाँ आकर, ये अपने घर जा कर किया कर, मैं भी तो देखू तेरी बीवी कैसे सुनती है तुझे ?

पूरा इलाका इनकी इस बातचीत को इतने ध्यान से सुनता है जैसे कोई फिल्म चल रही हो- वैसे ये नाईट शो सही टाईम पर ही तो शुरू होता है 9 से 12 .

इस भीड़ में आस-पास के वो सभी लड़के शामिल होतें हैं जिनका काम ही है रात की आवाजों को सुनना और अपनी खिल्लियों से माहोल में गूँज बनाये रखना जिससे की इनकी मोजूदगी का एहसास बना रहे उस जगह में. वो अपनी बैठक जान-बूझ कर ऐसी जगह बनाते है जहाँ से उनकी बातें और हरकतें इलाके के बीच पहुच सकें.

जब भी इस तरह की कोई बातचीत इलाके में भारी आवाज़ बनकर गूंजने लगती है तो आस-पास के घरों की गेलरियों में लड़कियों का आना होता है जिससे ऊपर-नीचे के बीच देखा-देखी का रिश्ता जोर पकड़ता है और इशारेबाज़ी, अपनी पसंद , दोस्तों के लिए भाभी चुनना एक तरह से एक अलग ही समझ बनता है इस माहोल को सोचने के लिए की इस दोरान वो क्या-क्या है जो चल रहा है होता है, लडाई सिर्फ हक और नाहक में फस कर रह जाती है उसके बीच लुक्का-छुप्पी का वो जो खेल है वो एक मोका बन जाता है लड़के-लड़कियों के लिए जिसके बार-बार बनने का इंतज़ार रहता है.

रमेश भाई पीने के बाद एक ही बात सोचते हैं की ये सब मुझे भागना चाहते है, मरना चाहते हैं. ऐसा इसलिए होता है की जब भी वो पीकर कालोनी में इंटर होते हैं तो वो सीधे अपने घर नहीं जाते बल्कि गालियाँ बकते-बकते बिल्डिंग के नीचे ही मंडराते रहते हैं. ऐसे हालातों में उनके दिमाग को कोई भी बात मिलना- हल्ला मचने का मुद्दा बन जाता है.

लड़के अकसर उनसे ये कह देतें हैं कि --- रमेश भाई तुम्हारा पत्ता तो साफ़ है ... ये सब मिलकर तुम्हे भागने कि साजिश कर रहे हैं .
बस ये सुनते है उनकी शराबी धुन शुरू, नशे की हालत में गिरते-पड़ते वो अपना रूप धारण कर इलाका सर पर उठाने का जिम्मा ले लेते हैं.

ऐसे में उनका चिल्लाना शुरू और शीतल जी का उन्हें समझाना शुरू, वो समझते हैं और ही कोई उन्हें समझा पता है बात यही पर आकर शुरू भी होती है और ख़त्म भी यही होती है कि--- तुम सब मुझे यहाँ से भगाना चाहते हो ....

saifu...

आंतरिक उर्जा


"खुद को अकेला समझना सरासर ना इंसाफी है"

ये लाईन मैंने अपने साथियों के साथ समझी, जब मैंने ये लाइन सुनी तो मुझे इसे समझने मे ज्यादा देर नही लगी क्योंकि इस लाइन को हम अपनी जीवन में कई कठिन प्ररिस्तिथियों में जीते हैं।

इस बात को समझने के बाद मैंने हमेशा इसे अपने आप से जोड़े रखा, क्योंकि ये लाइन मेरी आंरिक उर्जा मे एक खास तरह का बहाव पेदा कर देती है। जिससे मुझे कर जाने की क्षमता का एहसास होता है।

अकसर कुछ प्रसतिथियां इस कदर घैर लेती हैं कि हम खुद से एक बहस मे जुट जाते हैं और ऐसे हालात मे एक बात साफ साफ समझ आने लगती है कि जिस पर जितने संकट मंडराते हैं वो उतना ही सतर्क और आंतरिक उर्जा का धनी हो जाता है।

वो कहते हैना :- दूध का जला छाज भी फूक-फूक कर पीता है।


एसे मे खुद को समभालना भी मुझे अपनी आंतरिक उर्जा का बल लगता है। जिससे मुझे समस्याओं से लड़ने और उन्हें समझने का भरपूर दम मिल जाता है।

कई लोग समस्याओं के दौर मे प्रार्थना करते हैं और खुद को मजबूत करते हैं, प्रार्थना करने का मतलब है खुद को कमज़ोर समझना लेकिन अगर संकट से जूझा जाए तो हमारे अंदर की आंतरिक उर्जा का बल कई गुना बड़ जाता है।

जिसकी वजह से हमे डर नही लगता और डर ना लगने का मतलब है, हम खुद के दम से किसी भी और कैसी भी समस्याओं, चुनोतियों का सामना करने को तैयार हैं।

हालात शब्द से सभी का सामना होता है, किसी का खुशी में तो किसी का गम में, हालात हर किसी को खुद के होने का एहसास कराता रेहता है लेकिन हम उसे अकसर अपनी ज़ुबा पर तब लाते हैं जब हालात ही कुछ एसे हो- मतलब परेशानियों के समय में।

हमे मुकाम कब मिलता है ?

जब हम अपने अंदर की ताकत और जुझारुपन को सामने लाते है या बाहर लाते है।

इस बात को समझने का एक और नज़रिया हो सकता है- कि जीवन के लिए जो जद्दोजहद आदमी करता है वही हमारी आंतरिक उर्जा को मनोबल देता है।

और इसे हम प्रतिरोधक क्षमता भी कह सकते हैं जो जीवन के लिए किये गऐ संघर्ष से आती है।

जब किसी पर संकट आता है तो वो रास्ते तलाशता है।

शेर पीछे पड़ जाए तो हिरन भागने की कोशिश करता है और इसी तरह हम पर भी जब समस्याऐं आती हैं तो हम बचने की कोशिश करते है।

एसे हालात हमारी अंदरुनी चैतना को दिखाते हैं और जब संकट घैर लेते हैं तो हमारी चैतना ही हमें प्रस्तिथियों से लड़ने को उत्साहित करती है।

और इस बात को हम खुद से महसूस कर सकते हैं कि संकटों मे ही हमारी आंतरिक उर्जा पोषित होती है।