आज जब हम अपने बड़ों से चोरों के किस्से सुनते है तो या तो वो तानाशाही जैसे ढ़ाचे में जड़कर सुनाए जाते हैं या फिर टुच्चे-मुच्चे बदमाशों की कतार में, इन सबका दिल्ली शहर में सालों से दबदबा बना रहा है और आज भी उन्ही के नामों से कई इलाकों को नवाज़ा भी जाता है और उनका नाम लेकर बदमाशी का वो दौर दोहराते हुए पनपते बदमाश भी दिखाई दे जाते हैं जिसमें की आपसी लड़ाई की बहस कम और इलाकावादी सम्मान को लेकर लड़ाई ज़्यादा झलकती है जिसमें जिसका पलड़ा भारी रहता है उसी की जगह-जगह चर्चा होती है और उन्हें आस-पास की काना-फूसी में पुसतेनी बदमाशों के नाम से जाना जाता है कि-
"उसका बाप क्या कम था! भाई कोई बोल तक नही सकता था उसके आगे इतना भरम था उसका"
कई बार कुछ यूं सुनने को मिलता था कि कुछ चौरों को आम-पब्लिक ने बीच चौराहे पर बांधकर मारा, घसीट-घसीट कर मारा, मार-मारके मार डाला।
बदमाशों की छवि अब हर जगह फीकी पड़ती जा रही है और अब इलाकों में नऐ नामों से जाने जाते चहरे सामने आ रहे हैं " मशीन " एसा नही है कि ये समाज में नए दाखिल हुए हैं पहले इन्हें जैब-कतरों के नाम से जाना जाता था लेकिन अब दौर बदल गया है मशीन जैसे नाम ने इनकी पहचान के साथ साथ इनका काम भी बदल दिया है।
आज मोबाइल मशीनों की कारास्तानी की वजह से हमारे बीच इतनी हल्की छवि लिए खड़ा है मानों जैसे हम कोई रेडियो खरीद रहे हों। खुद के वजूद के साथ, खुद के आकार और नाम के साथ महंगे दामों में कभी रेडियो बिका करते थे आज रेडियो की मार्किट बहुत खस्ता है क्योंकि मोबाइल ने रेडियो को जिस तरह से पब्लिक में पेश किया है शायद रेडियो अपने खुद के लिए ये कभी नही कर पाता।
जैब के इस हैर-फैर को हम खुद में इतना ढ़ाल चुके हैं कि ये सोच कर रह जाते हैं “200 रुपये का तो लिया था निकल गया तो कोई बात नही, 6 महीने चला लिया- हो गऐ पैसे वसूल। तब हम सिर्फ अपना फाएदा ही सोचते है लेकिन एसे में जैब से जैब तक का ये सफर हमें उन लोगों से ओझल रखता है जो हमारे बीच रहकर ही ये हैर-फैर का गैम खेल रहे हैं और यहां बात सिर्फ फायदे और आस-पास में होती अदली-बदली की नहीं, बात तो इतनी फैल चुकी हैं कि इन लोगों का काम इलाकों में इसलिए फैलता जा रहा है क्योंकि अब हर जगह मोबाइल की दुकानों की तादात बढ़ती जा रही है और दुकानों का बढ़ता सिलसिला ये एहसास दिलाता है कि- कहीं लोगों से ज्यादा मोबाइल तो नहीं ?
इस बीच मेरा एक दोस्त जिसने हाल-फिलहाल में ही चिलती क़बर पर मोबाइल की दुकान खोली है उसका काम सिर्फ मोबाइल रिपेयरिंग करना का है जिससे कि रोज़ाना के 150-200 रुपये बन जाते हैं लेकिन शाम होते ही जब हम कुछ यार-दोस्त उसकी दुकान पर मजमा लगाते हैं तो कई नई फिल्मों को इतने नज़दीक से देख पाते हैं, जिससे कि हमें आस-पास में हो रही उस हलचल के बीच की बातचीत में शरीक होने का मौका मिल जाता है। कौन, किसको, कितने का, कैसे ?
ये सब बातचीत सिर्फ चंद अल्फाज़ों में ही रखी जाती है, जिससे की छुपे-चोरी ये काम करने की समझ बनती है।
मोबाइल की दुकानों की ये अलग की कमाई होती है जिसे वो अपना खर्च मान कर चलते है एक दिन अगर दो एसे सेट दुकान से होकर निकल गए तो समझो हो गई कमाई क्योंकि उसकी दुकान पर आते-जाते कितने ही चेहरों के बीच एसे कई चेहरें रहते है जो सिर्फ दो लाईनों में पूछकर बात खत्म कर देते हैं "आया कोई मोबाइल, आऐ तो मुझे बता दियो"
कई दुकानों का रोज़गार आज की तारीक में इन सेकेंड हैंड मोबाइलों से चल रहा है क्योंकि यहां पर भी इन्हें 100-150 की बढ़त के बाद ही किसी जैब तक पहुचाया जाता है।
मशीनों की हाथ सफाई को अभी भी लोगों की नज़रों से ओझल रखने के लिए अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है जैसे सेट, जुगाड़, या फिर पैन जो कि अज-कल फेमस है।
कभी-कभी हमें लगता है कि हम इन चीज़ों से बहुत दूर है लेकिन ये बातें और ये कारस्तानियां हमारे बहुत नज़दीक से होकर गुज़रती हैं और कभी-कभी खुद को ये अनुभव भी लेना पड़ जाता है कि जब कोई आपकी जैब से मोबाइल निकाल ले जाए और आप सिर्फ लोगों की शक्लें ही देखते रह जाओ उस वक़्त न इलज़ाम लगाने की जगह बचती है ना छान-बीन की। अपना नम्बर मिलाओ तो ये पता नहीं चलता कि अब वो मोबाइल किसके हाथों में है, कहां है ?
उस वक़्त सब्र जैसे शब्दों का सहारा लेकर हम जैब से जैब तक के इस फेलते सिलसिले को छोड़कर कोई नया मोबाइल ले लेते है और अगली बार हर एक एसी जगह में अपने आपको संभालने के साथ-साथ हमारा ध्यान अपने मोबाइल पर ही होता है और उस वक़्त पास खड़ा हर व्यक्ति हमें मशीन लगता है क्योंकि किसी एक के माथे पर नहीं लिखा कि " मैं मशीन हूं। "
सैफू.