आकर्षण वाली जगह का एक मापदण्ड़ हम अपने साथ लिए चलते हैं जिसे हम कभी, "टाईम पास है","वक्त गुज़ार रहा हूँ "
ऐसे शब्दों के नीचे दबाकर रख देते हैं। जो हमारी एक जरुरत बन जाती है। जब कोई जगह हमें अपनी ओर आकर्षित करती है तो कभी हम उसे स्वीकार कर लेते हैं या नकारकर कोहरे की धुंध में खो जाने के लिए छोड़ देते हैं।
पर हो रहे आकर्षण को हम कैसे अपने आप में समा लेते हैं यह एक सवाल जवाब के साथ बन जाता है जिसे हम अपने ही शब्दों मे खेल जाते हैं।
हम रोजर्मरा की रुटीन में कितने ही आकर्षणों को अपनाते हैं?
यह भी हमारा ही स्वार्थ तय करता है। एक जगह हमें दूसरी जगह से आकर्षित होने की प्रेणना देती है, जिसे हम साथ लिए और आकर्षणों को खोजते रहते हैं।
ऐसे ही मेरा एक दोस्त जो अकसर दूसरे घरों की सज़ावट को इक्ठठा कर अपनी काल्पनिक घर की तैयारी में लगा रहता है। वो अपने घर का आकर्षण दिखाने के लिए चीज़ों को देखता और पसन्द करता है।
*उसके लिए अपना और उसका आकर्षण क्या मायने रखता है?
*पर अकसर लड़ाइ होती है कि जगह की हमसे मांग क्या है?
*अगर हमें कोइ चीज़ पसन्द आती है तो क्या वो हमारा आकर्षण है?
*या किसी जगह में समय देना वो हमारा आकर्षण है?
*जगह मांगती क्या है? आपका वक्त या आपकी पसन्द ?
*आपके देखने के तरीके को झुटलाना या बनावटी आकर्षण को आपकी नज़रों में कैसे उतारा जाऐ उसकी एक समझ?
कभी लगता है कि किसी जगह में हो रही क्रिया जो काफी निम्न गति में अपने आकर्षण को एक व्यावस्थित रुप में लाने की कोशिश में लागी दिखाई देती है, जो कभी खत्म नहीं होती।
इस क्रिया में चीज़ें जुड़ती रहती हैं जो उस जगह के आकर्षण का केन्द्र बिन्दू बन उभरती है।
मनोज.
घूमती समझ.
शरीर...
जिम की तस्वीर को अगर देखा जाए तो उसका सामान ओर आकर्षित शरीर ही उसकी नज़र को और गाढ़ा करता है।
जो कई तरीकों से अपने आकर्षण को बयां करते फिरते हैं, कभी दोस्तों की मंडलियों में तो कभी देखा-देखी में जिसमें बनने-बनाने की बातें जो सामने वाले से होकर आपके अपने शरीर की बनावट तक आकर रूक जाती हैं। कि
"काश मैं भी ऐसा होता?“
अगर मैं भी जिम जाने लगू तो कैसा लगूंगा?
मेरे शरीर के साथ-साथ मेरे कपड़े पहनने के तरीकों में कितना फर्क आ जाएगा? ऐसे कितने ही सपने जो कल्पना की उड़ान में हमको हमारा जिम से जुड़ा आने वाला कल दिखाता है। ऐसी बहुत सी बातें या अपने आप को देखने की नज़र का बदलना दिमाग में जिम की तस्वीर को और गाढ़ा कर देता है और फिर एक ज़िद्द या अच्छा शरीर पाने की तमन्ना हमको जिम की ओर खींच लेती है।
जिसके खिंचाव के दोरान ऐसे बहुत से शरीर, बहुत सी बातें आपकी उत्सुक़्ता को और बढ़ा देती है जिसमे हम कई पड़ावों को अपना लेते हैं सिर्फ़ अपने मैं के लिए और वो पड़ाव कभी जिम को लेकर खर्च होता है तो कभी उसके लिए टाइम निकालना या दोस्तों से कटना। और यही मैं अपने आपसे एक आस लगा बैठता है, पतले हाथों को डोलों में तबदील होते हुए, पतले बदन को चौड़ा सीना बनते हुए देखना चाहता है
जिसमें मैं भी सामने वाले के लिए एक आकर्षण बनके निकलू और ओरों को एक नज़र दूं कि "ऐसा होता है शरीर"
सैफू.
कोई पहचान
चप्पलों की घिसावट के साथ हम अपनी दूरीयों को नापते चले जाते है। नज़रों से नज़रों को मिलाते फिर चुराते अपने उस मुकाम को पाने की कोशिश में रहते हैं जो कभी हमारा था ही नही। फिर मिलते है समय के उन टाईम टेबल से जो एक निर्धारिता मे बंधा है।
अपनी ही तरह की आज़ादी को पाने की होड़ लोगों को कहीं से भी खेंच लाती है। लोग दूरीया नापकर अपने नेटवर्क को बड़ाने के लिए कही से भी भागे चले आते है इन अनमोल जगहों की तलाश में।
वो अपना समय उन लोगों के नाम कर देते हैं। जो चैलेंज की एक बनी हुई प्रक्रिया के साथ मिलते है। लोग चाकू की तेज़ धार लिए आपको हराने के तरीके को पैना करते और अपने गैम मे माहिर होने की बुनाई में लगे रहते है।
उस बुनाई की हर एक गाठ रोज़ एक नए मेम्बर की तलाश को चारों ओर फैला देती है।
कभी-कभी मंडलियों के बिगड़ने की बातों को भी यहां का मुद्दा बना लेते है "कहां गया तुम्हारा चौथा पार्टनर" "दिखाई नही दे रहा, काफी दिन हुए उसे देखे हुए" अगर वो सही है तो ठीक, नही तो उसके बारे में ही उस जगह में उसकी चर्चा होने लगती।
मुद्दा कुछ एसा होता जो लोगों को या तो सिरियस या फिर माज़ाकिया तौर पर ले जाता। बगल की सीटो पर बैठे लोग अपनी दूरीयों के तय किये हुए इतने समय से बने दायरों को फैलाने और बने नेटवर्क खत्म न हो जाए इसी डर में रहते हैं। और बुनते रहते है अपनी बुनाई को उस क्लब में।
मनोज...
शख़्सीयत
एक ऐसी छवि जो बाज़ार में तो कभी गलियों में घुमक़्कड़ों की तरह जिंदगी के रंगों को जीते हैं और हमारे आस-पास भी ऐसे कई शख्स हैं जो हमें बहुत से नुक्कड़, चौराहों और गलियों में गाना गाते, अपने आपसे बातें करते, चीखते-चिल्लाते और उन बच्चों को गालियाँ बकते नज़र आते हैं - जो उन्हें पागल-पागल कहकर चिड़ाते हैं।
न वो ये साबित कर सकते हैं कि वो पागल नहीं हैं और न वो कहते की जुबान रोक सकते हैं वो बस उनसे दूर अपने आपको कहीं समेटना चाहते हैं, कहीं किसी कोने में। जो कौना समाज उन्हे नहीं देता और अगर देता भी है तो एक चुप्पी के साथ... जिसमें न उनको सुनने वाले कान होते हैं और न ही बत से बत्तर हालात में देखने वाली आँखें, न रहने को छत और न पहन्ने को साफ कपड़े, कोइ ढ़ैर सारे लिहाफ-बिसतरों मे लिपटा दिखाई पड़ता है, मौसम चाहे कैसा भी हो उसे न गर्मी लगती है और न सर्दी...
तो कोई सिर्फ़ चार पट्टीयों मे लिपटा सड़को पर घूमता रहता है।
उसके लिए न शर्म है और न लोगों के ताने कि "तूने पहन क्या रखा है?"
और अपने नंगे शरीर को पूरे बाज़ार में लिए फिरता है न कोई उसको दो कपड़े पहनाने वाला है और न कोई ये कहने वाला कि "दो कपड़े तो पहन ले"
कोई-कोई तो इस कदर चीख़ता हुआ दिखता है कि मानो उसको कोई सरे-आम सड़क पर हंटरों से मार रहा हो पर उसको मारने वाला कोइ नहीं होता वो अपने आप उस चोट को महसूस करता और जोर-जोर से चिल्लाता, अजीब-अजीब सी आवाज़ें निकालता, न जाने वो जोर और वो कड़कपन उसकी आवाज़ में कहां से आता है?
कुछ ही दिन पहले की बात है एक शख्स दिल्ली गैट से पहले पड़ने वाले तिराहे चौक के एक साइड में बैठा अपने आप में बड़बड़ा सा रहा था। मैं उसे देख वहीं एक जनरल स्टोर पर रुक गया और कुछ खरीदने लगा। बार-बार मेरी नज़रें उसे देखने और मेरे कान उसे सुनने को बेचेन से हो गए थे। दुकानदार ने पूछा भी कि ....
क्या लेना है ?
मेरी नज़रें एक पल उसकी तरफ मुड़ी और वापस उसको देखने लगी और होटों से आवाज़ निकली " ब्लू पेन देदो कोई सा " अपने हाथों को कान पर लगाए मोबाइल की कल्पना ने उसे अंधा बना दिया था कि उसके पास मोबाइल है।
मैं उसे ही देख रहा था।
वो : " हैलो हां मजिस्टेड साहब हां मेरी कल की फ्लाइट है, मैं कल नहीं आ सकता "...
" हाँ हाँ वो मैं अभी एक जरूरी मीटींग में हुँ मैं कल आउंगा "...
" हैलो शुकला साहब मेरी अमेरीका का टीकट कटवा दो, मैं कल आपसे मिलनें आउंगा "...
ऐसी कई सारी बातों से वो अपने आपको एक रहीस आदमी की छवि में उतारता और उसे भूल जाता जो दुनियां देख रही हैं पर वो नहीं कि वो मैले-कुचेले कपड़ों में, बिना जूतों के मोज़ों में, कुड़े के ढ़ैर के पास बैठा, शक़्ल पर बेवारसी और होंटों से निकलती बनावटी हँसी और शब्द।......
न जाने वो हर काम कल पर क्यों टाल रहा था और कल की सोच की वजह से ही शायद वहां पड़ा था। रोज़ एक नया कल पर आज की कोई छवि नही।
खैर मैं दुकानदार को बिना कुछ दिये और बिना कुछ लिये ही वहां से आगे बड़ गया। ये सोचता हुआ कि " सारे उलटे-सीधे दिल्ली में ही पड़े हैं। " उसे देखने के बाद और बाद में उसे सोचने पर मुझे मन ही मन हँसी आती रही कि
हालात चाहे कैसे भी हों पर उसका सपना छोटा नही था।
सैफू.
Labels: देखा-देखी , यादों की दुनियां...
12:45 चाय की दुकान...
चार लोग दो-दो के ग्रुप में आमने-सामने बैठे हैं लकड़ी की टेबल पर। उसके ऊपर का कलर चाय वाले ने अपने पोछे के कपड़े में सोख लिया है।
पूरे भरे हुए चार गिलास पानी उनके स्वागत पर उन्हें दिये गए हैं। चारों 35 से 40 तक की उम्र तक के होंगे। सबने सर्दियों के मुताबिक गर्म कपड़े पहन रखे हैं। उनमें से एक के बाल अनुभव की रेंज में आकर पक चुके हैं। बातों का सिलसिला उनके स्वागत से पहले ही श्री गणेश हो चुका है।
पहला आदमी : (बालों का रंग सफ़ेद होने के हिसाब से सबका पंच लगा रहा है) थोड़े गम्भीर स्वर में बोला, "आज जुनेद का एक्सीडेंट हो गया।"
दूसरा आदमी : (अपनी पतली काया और काली चमड़ी के साथ)
चौंकते हुए पूछा, "कब?”
पहला आदमी : हल्के स्वार में बोला। "आज सुबह।"
(बोलने का तरीका और चहरे के भाव से लग रहा था कि जैसे किसी मछुआरे की नौका सम्रुद्र में डूब रही हो और वो बेचारा दुखी किनारे से सब देख रहा हो)
दूसरा आदमी : "वो कल ही रास्ते में मुझसे दुआ-सलाम करता जा रहा था।"
(यह उस मछुआरे को सहानुभूति देकर दुख की छाया से बाहर निकालने की कोशिश में लग रहा है।)
पहला आदमी : "ट्रक के साथ एक्सीडेंट हुआ है, बाईक पर था। अभी तो निकलवाई थी उसने। मैं तो उसे देख भी
नहीं पाया"
(मानो जैसे पूरा दृष्य उसकी आँखों के सामने फिर रिवाइन्ड हो कर आ गया हो)
टककक... चाय के गिलास टेबल पर आ गये और वो भी अपनी चिंतन से बाहर आ गये। थोड़ी देर सब शांत रहे मानों जैसे मोन व्रत हो और फिर चाय पीने लगे। माहौल पता नहीं कहाँ गुम था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि "मैं कहां हुँ?“
मनोज.
Labels: महफिलों के बीच से...
छत्ता लाल मिया " जिम "
ये एक लोकल जिम है जिसकी बनावट कुछ खास नहीं है। पुरानी दिल्ली में ऐसे कई जिम गलियों-चौराहों पर चलते हैं जो अपनी बनावट से ज्यादा उसमें एक्सर्साएज़ कर रहे बन्दों पर गोर करते हैं वैसे यहां के आस पास के सभी जिम 60-70 गज की लम्बाई-चौड़ाई में ही बने हुए हैं जिसमें 100 से 150 बन्दे रोज़ के आते हैं, बाकाएदा उनकी रजिस्टर में एंटरी होती है और महीना आते ही याद दिला दिया जाता है कि
"भाइ आपका महिना हो चुका है" !
जिम अकसर दो टाइमिंग में चलते हैं सुबह 6 से 11 और शाम 5 से 10, यहां लड़कों में जिम का इतना शौक़ हैं कि सुबह-शाम ये दोनों टाइम ही भरा हुआ मिलता है।
यहां का अपना ही एक माहौल होता है जो हमें बाहर की एक समझ देता है कि लोग अब लोगों को कैसा देखना चाहते हैं।
मैं अपने आप में कैसा दिखता हूं और क्या बनना चाहता हूं? ये सवाल अपने आने वाले कल को लेकर ही होता है पर सिर्फ दिखावे में जो दिखता है उसके लिए। कुछ बनने से पहले हम उस दुनियां की कल्पना में खोये रहते हैं जो हमको उस बहाव में तैरने का एहसास देता है।
दोस्तों के बीच खड़े होने का तरीका और सड़क या बाज़ार में घुमने के स्टाइल की एक हवा सी गुज़रती है दिमाग में जिसके झोके हमको जिम से बांधे रखती है। फिर ख्याल आता है कि आप उस जगह में अकेले नहीं हो वहां आप जैसे शुरूआती बहुत हैं, जो अपने से और उस जगह से एक दिलचस्पी से जुड़े हैं।
जिम की बनावट और यहां की सजावट हमको एक ऐसे आकर्षण की ओर ले जाता है जो आप चाहते हो। इसका मैन मुद्दा है अपकी चाहत को समेट कर लाना और उत्साहित करना।
फिल्मी हीरो के फोटो लगाना, सलमान खान बिना शर्ट के, जोहन इबराहम की चेस्ट, शाहरूख के सिक्स पैक, उदय चौपड़ा के डोले और बाक़ी होलीवूड की फोटो, आर-नोल्ड वगैरह...
इन सब शख्सियतों को देखने पर देखने वाले को क्या उत्सुकता मिलती है ये समझ हर जिम के पास होती है वो अच्छे से अच्छा फोटो लगाता है, क्योंकि ये सब शख्सियतें ही उसके जिम का आकर्षण हैं, इतना सब देखने और अपने साथ एक्सर्साइज़ कर रहे छोटे-बड़ों से इतना तो पता चल ही जाता है कि शुरूआत क्या है और आगे क्या होगा।
बहुत से ऐसे लोग भी मिलते हैं जो हमको इसका अन्त समझाते हैं कोई रोककर तो कोई सलाह मशवरे में। इस जगह आपसी बातचीत का एक अलग ही रोमांच है जो बाकी सब जगहों से अलग है
जिसमें हमउम्र होने की वजह से अपनी बात को कही भी रखने में कोई झिझक नहीं होती, जिसमें "धिरे से बोल"
ये लाइन कहीं खोई सी लगती है।
जिम में नए चहरों को देखकर लगता है कि इनके भी कई सपने होंगे इस जगह से जुड़ी कितनी ही उम्मीदें और बातें होंगी, जिसको पूरा करने की आस में ये या तो सफल हो जाएगें या फिर कुछ टाइम बाद एक ऐसा समय अएगा कि ये भी मेरी तरह जिम आना छोड़ कर, उसके सपनों और यादों में ही घूमते रहेगें।
सैफू.
Labels: देखा-देखी , महफिलों के बीच से...
" आर्कषण "
जो हर पल अलग-अलग रूप में उस जगह में बहता रहता है जो न सिर्फ़ मेरा है और न सिर्फ़ तुम्हारा...
वो अकर्षण है किसी की शुरूआत का, किसी की आदतों को बरदाश करने का, सुनकर अनसुना करने का और बार-बार भगाने के बाद भी रोज़ वहां लगने वाली लड़कों की टोलियों का।
यहां लोगों ने इन जगहों को अपने तरीके से देखने की आदत डाल ली है और बना लिया है वो नज़रियां जिसमे बोलने और सुनने वाले सिर्फ़ वो हैं जिनसे ये जगह पनपने के उस ताव में है।
इसमे सदा से अच्छे और बुरे की बहस रही है जिसमे कोई पास तो कोई फैल रहा है और पास फैल की भाषा में इन जगहों को उतारने वाले और कोइ नहीं इसी जगह के वो लोग होते हैं, जो इस जगह के आस-पास को सोच कर, लहज़े-तमीज़ को सोच कर, अपने-पराए की परख पर, नऐ-पुराने अड्डे की पहचान को मुद्दा बना कर और इलाके की शिकाएतों या फरमाइशों पर इस को बना या बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ते।
यहां हर तरीके के लोग आते हैं। कोई गुटखा खाता हुआ तो कभी-कभी पूरी दुकान में सिगरेट का धुआ ही छाया रहता है।
यहां गालियां भी बकी जाती हैं और गलियों को सहा भी जाता है और हर तरीके का मज़ाक भी किया जाना लाज़मी सी बात है। यहां गर्म खून के लोग भी बहुत आते है जिनके मुँह मे गुटखा, नाक से बीड़ी का धूआ और मन में हमेशा मारने-मरने की बातें भरी रहती हैं।
छोटी-छोटी बातों पर एक दूसरे की खिचाई भी और जुगलबंदी में अपनी बात से सामने वाले को चुप कराने की तरकीब भी, जिसमें एक पल के लिए भी ये नहीं सोचा जाता कि कोई सुन लेगा तो क्या कहेगा?
सैफू.