" लेबर चौक "

दरिया गंज, तिराहा बैरम खाँ

एक बड़े से पीपल के पेड़ नीचे गोल घेरे मे बैठे कई तरह के मजदूर सिर्फ किसी काम के आने के इंतज़ार मे बैठते है, मटमेले, बेढंगे, ढीले-ढाले कपड़ों से सजा ये चौक सुबह होते ही अपनी अपनी ज़मीन के टुकड़े को घेर लेता है।

जब कभी किसी को अपने घर के छोटे-बड़े काम करवाने होते है तो वो अपने आस-पास के लेबर चौक पर जाते हैं, वहाँ जमा जितने भी पैंटर, बढ़ई, प्लमबर होते है वो यही पूछते नज़र आते है
- हांजी- बताइये क्या करना है ?

ऐसे नज़ारे यहा रोज़ सुबह देखे जा सकते है जिसमे काम की मारा-मारी शरीर को काम करने से ज़्यादा थका देती है, आराम से बैठने का कोई काम नहीं है, घंटों खाली खड़े और उकड़ू अवस्था मे बैठे रहना शरीर को बुरी तरह थका देता है।

मैंने भी जब थोड़ी देर उनके बीच उकड़ू बैठकर उनके बीच के संवाद को सुनने और उनके बीच तैरने वाली बातचीत को जानने की कोशिश की तो कुछ ही देर मे घुटने जवाब दे चुके थे कि तुमसे न हो पायी सैफु भैया, कहीं कोई चबूतरा देख कर वही बैठते है जहा कोई तुमसे दो बाते कर सके।

जब तक मे चौक के बीच था तो चौक आपस मे बुदबुदाता रहा बात कम करता रहा जैसे चाय को लेकर मज़ाक कि कौन पिलाएगा और सबका एक दूसरे पर इशारा कर देना, काम को लेकर सुररा छोडना कि ये क्या करेगा इसके बस की नहीं है और अपनी सफाई न देते हुये पलट कर कहने वाले को कहना की तुमने तो बड़े झंडे गाड़ रखें हैना और इसी तरह की छोटी-छोटी बातों मे सबका एक दूसरे को देख कर मुस्कुरा देना जो कि चौक मे न तो हल्कापन आने देता और न ही चौक को मज़ाकबाज़ी का अड्डा बनाता।

लेबर चौक के बीच से निकलते ही चौक ने अपने बीच की आवाज़ों को मेरे कानों से जैसे छीन सा लिया लगा जैसे मे बहुत दूर निकाल आया हु, पलट कर देखा तो लेबर चौक लेबर के मटमेले रंग मे एक समान ही दिख रहा था जिसमे मिस्त्री, प्लमबर, पेंटर और बढ़ई सब एक ही जैसे लग रहे थे

लेकिन नज़रें जैसे ही गिरती हुयी ज़मीन तक पहुची तो पता चला हर किसी के आगे रखे उनके औज़ार ही उनकी पहचान या कहे उनको उनका नाम देते है जैसे जिसके आगे पैंट का डब्बा और डब्बे मे अड़े ब्रश रखे हैं वो सफेदी वाला, जिसके आगे आरी,हथोड़ी और रंदा रखा हुआ है वो बढ़ई जिसके आगे तरह-तरह की छोटी-बड़ी लकड़ियाँ, खुरपी और औजारों का कट्टा रखा है वो मिस्त्री, जिसके आगे पाइप रिंच दो तीन तरह के औज़ार किसी थैले या कट्टे मे लिपटे पड़े हैं वो प्लमबर। ये सब जानने के दरमियान मुझे इतना समझ आ रहा था कि चौक से अगर पेंटर गायब कर दिये जाए तो खालीपन का एहसास होगा वो इसलिए क्योंकि सबसे ज़्यादा और सबसे अलग-ठलग वही हैं जो काम से ही नहीं हुलिये से भी रंगीन हैं बालों और चेहरों पर रंग के कई अलग-अलग निशान मोजूद है लेकिन ये सब दूर से नहीं, रूबरू होने पर ही दिखता है दूर से तो सभी मटमेले से है।

चौक को दूर से देखने की इच्छा मुझे चौराहे से सड़क पर ले आई थी जहा चौक का एक और हिस्सा सास ले रहा था जो चौक पर ही था लेकिन चौक से अलग जिससे की रास्ते तंग न हो जगह बनी रहे और काम भी।
एक और काम जो चौक से थोड़ी दूरी बना कर खड़ा हुआ था। कतार मे खड़े 4 गधे और 2 घोड़े, पीठ पर रस्सी के बुने हुए दो तरफा झूलते बोरे जो अभी मिट्टी मे लिपटे हुये थे, उसी बोरे मे अपनी परमानेंट जगह बनाया हुआ फावड़ा जो कि हर गधे, घोड़े के बोरे मे फसा हुआ था।
गधे बेसुध नीचे मुह लटकाए किसी आवाज़ के ज़ोर से आगे बढ़ने के इंतज़ार मे और घोड़ो की लगाम अपने हाथ मे थामे घदौड़ी (वो लोग जो गधों और घोड़ों पर मलवा ढोने का काम करते हैं ) सड़क के किनारे दुकान के बाहर निकले हुये चबूतरे पर बैठे हुये थे। वो दो घदौड़ी आपस मे किसी हल्की-फुल्की बातचीत से बिना चहरों पर खुशी को ज़ाहिर किए अपने बीच की बोरियत को मिटा रहे थे शायद। जिसको देखकर तरस भी आया कि क्या जिंदगी है? लेकिन फिर सोचा इसी को कहते है काम, हर काम हसी-खुशी जैसे शब्दों को अपने सीमित समय मे जगह नहीं देता।

उन दोनों की आँखों मे सुबह-सुबह की नींद का खुमार भी था और हाथों मे ज़िम्मेदारी की लगाम भी जो कि घोड़े और मालिक के बीच कनेकटिंग वायर बना हुआ था।
कपड़ो का रंग सफ़ेद था लेकिन उस सफ़ेद रंग पर चड़ी धूल-मिट्टी को झाड़ने की ज़रूरत महसूस नहीं होती उन्हे क्योंकि जितना मैं जनता हूँ वो कामगार सोच रखने वाले लोग हैं बार-बार साफ होने से बेहतर होता है, बार-बार गंदे होने के बाद एक बार तरीके से साफ होना।

उनके पास जाकर उनसे बात करने की जब कोशिश की तो मन थोड़ा घबराया कि क्या पूछूं इनसे, क्या बात करूँ जो वो अपने बारे मे कुछ बताएं।
बिना सवालों की बातचीत का मन बनाकर मे उनकी तरफ बढ़ा कि चल कर बैठता हूँ उनके पास फिर कुछ पूछ ही लूँगा ।


जिस चबूतरे पर वो बैठे थे मैं भी उसी चबूतरे के किनारे पर बैठा और बैठते ही बोला -
आज चौक पर काम नहीं है शायद ?
(उनकी तरफ मुह करते हुये)
दोनों की नजरे मुझ तक पहुची और देखने लगीं। एक लड़का था जिसकी उम्र यही कोई 25 या 26 साल की होगी और एक थोड़े उम्रदराज़, मेंने लड़के को साथी न बनाते हुये चाचा की तरफ रुख किया और पूछा - लगता है आज काम नहीं है चौक पर वहाँ भी सब खाली बैठे हुये हैं ।

चाचा मेरे मन के सवाल को ज़्यादा तवज्जो न देते हुये, मेरे चहरे से उठती हुयी हल्की सी नमी को देख कर बोले - तुम क्या काम करते हो ?
मुझे लगा - गयी भेंस पानी मे, अब या तो झूठ बोलना पड़ेगा या फिर सच, जिसका डर था।
बोला - कुछ नहीं, पढ़ाई करता हूँ।
चाचा - अच्छा
ये कहते ही उनके चहरे पर चुप्पी सा आ गयी थी, मुझे लगा अगर मे अपने काम के बारे मे बताता तो शायद बात आगे बढ़ती या कोई एक सवाल पूछने का मुह तो पड़ता।
मैंने चाचा की तरफ से अभी तक नजरे नहीं हटाई थी इसलिए क्योंकि मुझे उनमे इंटरस्ट था लेकिन वो अपनी नजरे झुका कर ये बाया कर चुके थे कि उनको मुझमे कोई इंटरस्ट नहीं है।
घोड़े की हल्की-फुल्की हलचल या पैर ज़मीन पर पटकने की आवाज़ शायद अब उन्हे सन्ना कर ये देखने को मजबूर नहीं करती कि क्या हुआ, इसलिए मेंने खुद की आवाज़ से फिर से उन्हे अपनी ओर खैंचने की कोशिश की और पूछा
"चाचा क्या आपको यहा रोज़ काम मिल जाता है?”
उनकी नज़रें उठी, हाथों को थोड़ा सा खोला जैसे सुबह की सुस्ती को मेरे इस सवाल ने उड़ा दिया हो।
बोले - नहीं, अब रोज़ काम नहीं मिलता।
बोला - आप रोज़ आते हो यहा ?
बोले - हा रोज़ आता हूँ,

मेरे इस जवाब के साथ-साथ उन्होने मुह से कुछ ओर शब्द भी निकाले जो चाय वाले के लिए थे
( एक बटा दो बना दिओ ) चाय वाले की दुकान घदौड़ीयों और लेबर चौक के बीच के हिस्से को अपने होने से एक बटा दो होती हुयी जगह को एक मे ही मिला देती है। जहा सभी अपनी दिन की सुस्ती को मिटाने के लिए कुछ देर खड़े होकर, दो बाते करके ही जाते हैं।
उसी दो बातों और कुछ देर के दरमियान ही इधर से उधर पहुचती बाते एक दूसरे की खैर-खबर रखने का जरिया बनता हुआ लगता है।
मुझे अपनी आँखों की पुतलियों मे वापस उतरते हुये बोले - हा बोल भाई ।
मेंने इस बार अपनी बात को थोड़ा सवारते हुये बोला -

क्या आप यहा से रोज़ कमाई करके उठते हैं ?
बोले - नहीं, ऐसा नहीं है कि रोज़ काम मिले, कभी मिलता है, कभी नहीं।
मतलब की रोज़ काम नहीं मिलता, लेकिन चाचा ये बताओ कि जिस दिन काम नहीं मिलता उस दिन कैसा लगता है ?
होठो से उठ कर मुस्कान आंखो मे जा बैठी और बोले - अच्छा बुरा सब ऊपर वाले के हाथ मे, इसलिए दुखी नहीं होता, रोज़ी देने वाले से मांग लेता हूँ, किसी न किसी तरह गाड़ी चलती ही रहती है।

उनके इस स्वाभाविक से जवाब को सुनकर दिल मे फिर से एक स्वाभाविक से सवाल जन्म लिया कि गाड़ी तो चलती ही रहती है लेकिन चाचा जिन पहियों पर आप अपनी गाड़ी चलते हो उनका क्या, क्या वो भी राम भरोसे है या फिर उनका कोई और जुगाड़ है ?

चाचा मेरी बातों से अपने लिए होने वाले सवाल को समझते उससे पहले उन्होने मेरे सवाल करते वक़्त मेरी नज़रों मे उतरे हुये उनके गधों-घोड़ों को देख लिया था शायद तभी उन्होने ज़रा भी वक़्त ज़ाया किए बिना ही जवाब दिया। बोले - बे-ज़बान की तो ऊपर वाला पहले सुनता है, इसलिए हमसे पहले ये खाना खाते है और जिस दिन इनके खाने का कहीं से जुगाड़ तक नहीं हो पता मानों हमारे घर के बच्चे तक भूके रहते हैं। इनसे ही हमारी रोज़ी रोटी जुड़ी है इसलिए ये हमसे पहले हैं, बच्चो की तरह ही केयर करनी पड़ती है इनकी भी।

उनकी बात पूरी होती की चाय वाले ने आवाज़ लगाई - "बड़े मियां चाय ले जाओ"
चाचा ने जैसे ही अपनी जगह छोड़ी घोड़े को लगा शायद अब उसके भी हिलने या आगे बढ़ने का वक़्त आ गया है जिस वजह से घोडा थोड़ा पीछे होते हुये अपने शरीर को थर्राने लगा, लेकिन चाचा की एक ज़ोरदार थपकी ने उसे फिर से घंटों वही खड़े रहने का इशारा दे दिया, मेरे आगे से निकलते वक़्त चाचा ने अपने हाथ का कनेकटिंग वायर मेरे हाथ मे दे दिया।
बोले - आता हूँ।

अपने अधेड़ बदन पर कुर्ता-पाजामा और कुर्ते पर बिना आस्तीन वाला स्वेटर पहने हुये वो दोनों हाथों मे चाय से भरे छोटे-छोटे प्लास्टिक के दो कप लिए वापस आए और घोड़े को कोहनी से ही साइड करते हुये चबूतरे पर आ बैठे.... एक कप उन्होने उस लड़के को दिया जो शायद काफी देर से हमारे बीच होती बातचीत को सिर्फ सुन रहा था बिना कोई आवाज़ किए और दूसरा कप मुझसे सिर्फ पूछने मात्र ही कहा - चाय पीले भाई...
बोला - नहीं, आप पियो।
कप को होठों से लगाते हुये बोले, काम का कोई भरोसा नहीं है कब आ जाए और ना भी आए।
बोला - आप कितनी देर तक बैठते हो चौक पर ?
बोले - रोशनी होने से लेकर रोशनी होने तक हम बैठे रहते हैं।

बोला - मतलब, सुबह से कब तक ?
बोले - सुबह जब रोशनी होती है हम घरों से निकाल जाते हैं और जब तक बाज़ार की दुकानें नहीं खुलतीं बैठे रहते है बाज़ार खुलते ही हम चले जाते हैं।
बोला - तो यहा से होकर क्या कही और काम के लिए जाते हो ?
उन्होने अपने चाय के कप की आखरी चुस्की लेते हुये कहा, जाने का क्या है कही भी चले जाओ लेकिन हमारा काम ऐसा नहीं है कि गली मोहल्ले घूमने पर काम मिल जाए, इसलिए यहाँ से सीधा बेड़े पर जाते हैं जहा सब आते है जिनको काम नहीं मिलता ओर जिनको काम मिल जाता है वो शाम को अपने-अपने मलवे के साथ वहाँ पहुचते हैं।

मैंने भी उनकी इस बात पर अच्छा कहते हुये उनकी बात पर सहमति जताई और चुप हो गया।
चाचा बड़े शांत मिजाज़ के लग रहे थे, अपनी खामोशी मे ही गुमसुम से बैठे हुये थे बात का जवाब बात से देते और चुप हो जाते। सुबह कि खुमारी ने अभी तक उस लड़के को रिहा नहीं किया था इसलिए उसका सुकड़ा हुआ शरीर अपने आप मे ही दबा हुआ सा था।
बोला - ये भाई क्या करते हैं ?
बोले - ये बस चाय पीता है और सोता है।
ये बात चाचा ने उस लड़के की गुददी पर हाथ रखते हुये बोली, बड़े मियां के हाथ ने उस जवान शरीर को उसकी उबासी से बाहर निकाल दिया हो जैसे। तब ख्याल आया जब वो अपने हाथ से किसी हट्टे-कट्टे घोड़े की थर्राहट को थाम सकते हैं तो ये क्या चीज़ है।

बोला - चाचा आपके पूरे दिन का खर्चा क्या होता होगा लगभग ?
बोले - लगभग..... (ठहर कर हल्की सी सास की आवाज़ छोडते हुये)
बोले - चाय, बीड़ी के अलावा तो कोई खर्चा नहीं है।
बोला - जिस दिन काम होता है उस दिन के खर्चे और जिस दिन काम नहीं मिलता उस दिन के खर्चे मे क्या फर्क है ?
बोले - भाई घर से काम पर निकलने का मतलब है कुछ न कुछ जैब खर्ची होनी ही चाहिए, अब काम मिले या न मिले, जिस दिन काम नहीं होता उस दिन तो हाथ रोक कर चलना पड़ता है लेकिन जिस दिन काम होता है उस दिन हर एक चीज़ जो काम से जुड़ी है खर्चा मांगती है।

बोला - मतलब कि उस दिन खर्चा ज़्यादा होता है जिस दिन काम होता है?
अपनी बातचीत की तसवीरों पर गौर दिया तो पिछले सवाल से लेकर इस सवाल के बीच चाचा अपने हाथों की हथेलियों मे घोड़े की टांगों को बड़ी ही नर्मी से पकड़े हुये थे और जवाब देने के साथ ही अपने हाथों से उन बड़ी सी टांगों को सहलाते हुये
बोले - हाँ, काम के वक़्त पैसे की शक्ल नहीं देखी जाती, ज़रूरत पूरी करनी पड़ती है, लेकिन जब काम नहीं होता तो जरूरतों पर लगाम भी कसनी पड़ती है।
बोला - किस तरह की ज़रूरतें ? ( अपने भी चहरे पर सवालिया भाव पैदा करते हुये पूछा ताकि उनको मेरे पूछने पर अपने करने की पैचीदगी का भार बताने मात्र ही न रहे बल्कि उसका एहसास भी उनके शब्दो मे छलक उठे। )

हालांकि ऐसा नहीं हुआ, वो अपने जवाब को मुह मे भरते हुये उठे और घोड़े की पीठ पर मलवे से सने बोरे पर अपना शरीर उढेलते हुये हाजिर जवाबी बनने का भाव चहरे पर ले आए।
मुसकुराते हुये बोले - ज़रूरत जो पेट से जुड़ी है, और हमारे-तुम्हारे मुक़ाबले ये पेट बहुत बड़ा है, तुम क्या समझते हो कितना खर्चा होता होगा इनका ?
"अपनी आँखों को थोड़ा चड़ाया, सोचने का ढोंग रचा" कहने को मे अनुमान लगा सकता था लेकिन चाचा की हिलती मुंडी और सवाल करती भवों ने मेरे अनुमान का जैसे दम ही निकाल दिया।
बोला - पता नहीं, लेकिन सुना है हाथी खरीदना आसान है, पालना मुश्किल है।
गर्दन से सड़क की लंबाई को नापते हुये
बोले - चार पेट भरने के लिए, पहले ये छेः पेट भरने पड़ते है, अगर इनकी खिलाई मे कोई कमी रह जाए तो समझो उस दिन काम का सत्तिया नास, ये वजन उठाना तो दूर अपनी जगह से हिलते तक नहीं हैं।

बोला - कितने का खर्चा आता है इनकी रोजाना की खिलाई पर ?
बोले - घोडा सो रूपाय का चारा खाता है और सो ही रुपये का निहार, और गधा पचास का चारा और सो का निहार।
बोला - निहार क्या होता है ?
बोले - निहार, कई तरह की सब्जियों, जड़ी-बूटियों को घी मे मिलाकर, पकाकर बनाया जाता हैं।
गधे का घोड़े के बराबर निहार खाने वाली बात पर चोकते हुये बोला - ये भी सो का ही निहार खाते हैं?
उन्होने फिर अपनी बात को ही ऊंचा रखा और मेरे चोकने पर कोई खास गौर नहीं दिया, सड़क पर अपनी नजरे टिकाये, टिकाये ही मुझे मेरे सवाल और अपनी बातचीत से दूर करने का इशारा सा दे दिया।

बोले - जितना बोझ घोडा उठाता है, उतना ही गधा भी उठाता है। पेट भरने के लिए चारा दिया जाता है निहार नहीं, निहार ताकत के लिए दिया जाता है।
कई जगह उनकी बात पर सहमति जताना, हामी भरना और वो हसे तो हस देना वो चुप तो चुप हो जाना, बातचीत को बनाए रखने का एक आसान सा ज़रिया लगा।

चाचा ने घोड़े की पीठ पर से अपने आप को हटाते हुये सुस्ती मे गुल उस लड़के को एक करारी आवाज़ से जगाया, उठ बे .... खड़ा हो और भाई हनीफ को देखकर आ कहा हैं वो अभी तक नहीं आए।
घंटे भर से जिस लड़के को ये सुध तक नहीं थी कि यहा क्या हो रहा है वो झट से तननाता हुआ खड़ा हुआ और चल पड़ा। देख कर अचंभा हुआ तो पूछ बैठा - चाचा ये सो रहा था कि ऊँग रहा था ?
चाचा ताव मे बोले - जब तक में चुप हूँ तो ऊँग या सो फर्क नहीं पड़ता, लेकिन मेरी आवाज़ से तो इसका बाप भी जाग जाता और ऐसे ही दौड़ता हुआ नज़र आता।



समय बीतने के साथ साथ उनकी सड़क को देखने वाली पुतलियाँ भी तेज़ी मे आ चुकी थी जिससे की उनकी आँखें कभी भीड़ को देखती तो कभी सड़क से अपनी ओर आते कई लोगों को, सुबह के वक़्त स्कूल जाने वाले बच्चे जहा कम होते जा रहे थे वहीं काम पर निकलने वालों की तादात बढ़ती ही जा रही थी। रिक्शे वाले और बाइक, स्कूटरों की आवा-जाही से सड़क मे भराव का एहसास और चौक के धीरे-धीरे सिमटते हुये दाएरे को देखकर यही कहा जा सकता था कि - आज चौक पर काम नहीं है शायद ?



कौन है।


लकड़ी के ज़ीने पर चढ़ते हुये जब भी कोई घर मे दाखिल होता है तो मानों जैसे सब कुछ भूल कर बस यही ताक मे लग जाती हूँ कि 

 "कौन है"

अब्बा रोज़ जब भी घर मे दाखिल होते है तो उनके ज़ीने पर आते ही उनकी पहचान करने मे कान कभी धोका नहीं खाते क्योंकि उनके घर मे आने का समय और उनके ज़ीने पर चढ़ने का तरीका अकसर मेरे दिमाग मे उनकी इमेज बना देता है कि अब्बा आ रहे है। लेकिन अम्मी हमेशा मुझे अचंभे मे रखती है कि कहीं कोई और तो नहीं क्योंकि वो सीधे ज़ीने पर नहीं चढ़ती कभी किसी से बात करने के लिए रुक जाती हैं तो कभी सास लेने के लिए ज़ीने को पकड़ कर बीच मे ही खड़ी हो जाती है इस वाकये को जानते हुये भी मुझे झांक कर ये पक्का करना ही पड़ता है कि अम्मी ही है न लेकिन छोटा भाई शानू वो तो बहुत ही फर्राटे से ज़ीने पर चढ़ता हुआ आता है उसके घर मे आने की आवाज़ सुनते ही जैसे मुह खुद बोल पड़ता है 
"आ गया कमीने"

घर के किसी भी कौने मे बैठी हुयी हूँ या छत पर कपड़े सूखा रही होती हूँ मेरा सारा ध्यान अक्सर अपने ज़ीने को सुनने मे ही लगा रहता है क्योंकि अम्मी घर मे जीतने भी वक़्त रहती है सिर्फ सोती रहती हैं या फिर टी,वी मे ही मग्न रहती है इसलिए मुझे हर वक़्त यही चिंता रहती है कि कही कोई और ना आ जाए घर मे। दिन भर घर मे कोई नहीं होता अम्मी होती है लेकिन न के बराबर इसलिए हर एक छोटी सी हलचल भी मेरे जहन मे ख्याल बुनने लगती है। कभी छत से, कभी खिड़की से, कभी घर के दरवाजे से अक्सर झांक कर ये पक्का करती हूँ कि सब कुछ ठीक है क्योंकि मुझे घर मे सिर्फ किसी अंजाने के आ जाने का डर नहीं है मुझे अपने आप से जुड़े कई और डर भी सताते रहते है कि कही वो ना आ जाए।

वो अक्सर ऐसे वक़्त पर घर के नीचे चक्कर काटता है जिस वक़्त घर मे कोई नहीं होता अम्मी भी बाज़ार गयी हुयी होती है, अक्सर उसके घर के नीचे मंडराने के एहसास आवाज़ों मे तब्दील होकर मुझे घर मे सुनाई देते है कभी वो किसी डब्बे को बजा कर ये एहसास दिलाता है कि में आ गया हूँ तो कभी अपने साथ के लड़कों से तेज़ आवाज़ मे बात करके, कभी मेरे घर की सीढ़ी पर बार बार पैर मार कर मुझे डराता है कि वो ऊपर आ रहा है। मुझे किसी न किसी बहाने से वो दरवाजे पर बुलाने की हरकते करता रहता है, मैं उससे डरती नहीं लेकिन मुझे डर अपने आपसे लगता है कि अगर किसी दिन मैंने उसे ऊपर बुलाने की हरकत की तो क्या होगा इसलिए हर वक़्त मुझे अपने आप पर काबू रखना होता है क्योंकि घर मे कोई भी कभी भी आ सकता है।

वैसे तो मुझे घर के काम से फुर्सत नहीं मिलती फिर भी जब भी, जितना भी वक़्त मे काम से चुरा पाती हूँ उसको अक्सर अपने घर की चोखाट पर बिता कर गुज़ार देती हूँ ऊपर से गली मे ताक-झाक मे जितना कुछ दिखाई नहीं देता उससे कही ज़्यादा सुनाई देता है आस-पड़ोस के घरों मे चल रहे टी,वी और बच्चो के लड़ने, औरतों के आपस मे बाते करने की आवाज़ें गली को जैसे उसकी आवाज़ देती हुयी सी लगती है।

मैंने मोहल्ले की और भी गलिया देखी है लेकिन हर गली का अपना एक अलग ही साउंड और वॉल्यूम होता है जो कि वहाँ रहने वालों के हिसाब से बनता है किसी गली मे कारखाने ज़्यादा है तो वहाँ हर वक़्त मशीनों और उठा-पटक की आवाज़ें सुनाई देती है, किसी गली मे नल नहीं है तो वहाँ से आती आवाज़ें अकसर पानी को ही कौस रहीं होती हैं, किसी गली के गटर का पत्थर का ढक्कन टूटा हुआ है तो वहाँ से हर गुजरने वाले की आवाज़ उस गली मे गूँजती है, कहीं लड़के खड़े रहते है तो कहीं औरतें घरों के बरामदे मे ही बैठी हुयी दिखती है तो वहाँ से उठने वाली आवाज़ वहाँ की जैसे पहचान को गढ़ती हुयी सी लगती है। क्योंकि जिस दिन ये आवाज़ें गली से गायब हो जाती है तो मानों ये आँखें उन तसवीरों मे झांक रही होती है जो अकसर आवाज़ करती है।
रामज़ानों के दिनों मे मगरीब का वक़्त गली पर ही नहीं बल्कि मुह पर भी ताले लगा देता है, कहा तो ये जाता है कि जब भी आपके कानो मे अज़ान सुनाई दे तो उसे सुनना बहुत ही सवाब का काम होता है, और सुनने के दौरान खलल पैदा करना या बोलना उतना ही गलत समझा जाता है। इसलिए रामज़ानों मे सभी इस बात को मानते हैं, जिसकी वजह से कभी ये एहसास नहीं होता कि हम अकेले ही रोज़ा खोलने बैठे हुये है सब की चुप्पी भी सबके साथ होने का एहसास गली को बाँट रही होती है।

घर मे बिताए दिन और रात को मैं दो अलग पहलुओ से देखती हूँ। दिन मे जब भी कोई ज़ीने पर चड़ता या उतरता है तो कभी ये ख्याल नहीं आता कि कोई और घर मे दाखिल होने के लिए ज़ीने पर चढ़ा है हर किसी के ज़ीने पर चढ़ने कि कोई न कोई तस्वीर दिमाग मे बनी हुयी सी है अकसर हर आवाज़ से जुड़ती किसी न किसी छवि को दिमाग बना ही लेता है कि शायद वो होगा या फिर खाला या मामू होंगे किसी का तेज़ी मे चढ़ना किसी का आहिस्ता से चढ़ना किसी कि चप्पल तो किसी के जूते की आवाज़ किसी अपने के होने का ही एहसास दिलाता है। लेकिन रात को जब सभी घर वाले घर मे ही होते हैं तो भी मेरा दिमाग इधर-उधर से घूम कर ज़ीने पर ही आकार रुक जाता है भले ही कोई आवाज़ न हो लेकिन जहन के ठहराव को अक्सर मैंने अपने ज़ीने पर ही आकार महसूस किया है जैसे ज़ीने पर किसी आवाज़ के होने का इंतज़ार सा कर रहे हो कान।

कई मर्तबा ऐसा होता है कि रात को जब कभी नींद नहीं आती तो मैं बस दीवारों को ही देखती रहती हूँ उन कुछ घंटो मे सबसे ज़्यादा मे सुनने का काम कर रही होती हु, क्योंकि समझ ही नहीं आता कि क्या करू क्या सोचु, बोल सकती नहीं और सुनना रोक सकती नहीं। ऐसे मे ध्यान गली और ज़ीने से हटकर घड़ी की टिक-टिक और चूहों की कुतुर-कुतुर मे कुछ देर के लिए बहकता ज़रूर है लेकिन फिर ज़ीने पर किसी के आहिस्ता से चढ़ने का एहसास होता है। जैसे कोई आवाज़ गली से उठकर ज़ीने पर चढ़ रही हो सिर्फ मुझ तक पहुचने के लिए।
कभी-कभी तो सोचती हूँ कि वो आवाज़ें जो मुझे रात को ज़ीने पर सुनाई देतीं हैं वो सिर्फ और सिर्फ मेरा वहम है और कुछ नहीं। लेकिन दिल है कि मानता नहीं वो ख्याल बुनता है, चाहतें पैदा करता है इसलिए कि मैं ये ना सोचु कि कोई और है ये सोचूँ कि कहीं ये वही तो नहीं।

ऐसा मेरे साथ कई बार हुआ है कि मैं सपने मे किसी को अपने ज़ीने पर चढ़ता हुआ देखती हु और जेसे ही मैं ये जानने के लिए कि कौन है अपने सपने को ज़ूम करती हूँ तो सिर्फ एक कत्थई जूते पहने हुये आदमी के पैर नज़र आते है जिसके ज़ीने पर पैर रखने की हर आहट मेरे दिल को धीरे-धीरे कमजोर करने लगती है। उसका हर एक बढ़ता हुआ कदम मेरे पूरे शरीर को झँझोड़ सा रहा होता है और जैसे ही वो चोखाट पर आकार रुकता है मेरी अक्सर आँख खुल जाती है ये देखने के लिए कि बाहर कौन है ?

मैं बिस्तर मे लेते-लेते ही किसी के दरवाजे के उस पार खड़े होने के एहसास को बिलकुल भी छोड़ नहीं पाती, मेरा डर मेरे शब्दों को जैसे जकड़ लेता है मेरी आवाज़ मेरे हलक मे ही अटक कर रह जाती है। दो-तीन बार तो डर का पारा चड़ जाने पर मैं फिल्मी अंदाज़ की ही तरह चौक कर चिल्लाई भी " कौन है..... " तभी कई सारी आवाज़ें सिर्फ मेरे जहन की उस आहट को मिटाने के लिए मुझे झंझोड़ने लगती है कोई नहीं है, हम सब हैं तो, क्या हुआ, कोई भी तो नहीं है....
घर वालों के पूछने पर भी मैं कभी अपने इस ख्याल को घर वालों के सामने नहीं रख पाती कि मेरे
इस तरह के सपनों के देखने की वजह क्या है क्योंकि बात छुपने के पीछे की वजहें सिर्फ मुझे डराती ही नहीं है मुझे जिंदगी के कुछ नए पहलूओं से भी मुखातिब करतीं है।

पूरे दिन बिताए उन घंटों से ज़्यादा मुझे रात के वो कुछ घंटे सकून से भर देते है जब सभी सो रहे होते है, पापा की खर्राटे, भाई का नींद मे बात करना पंखे का चिर-चिर करते हुये चलते रहना लगता ही नहीं कि इन आवाज़ों से भी शोर होता है इन आवाज़ों के होते हुये भी में रात के सूनेपन को महसूस करती हूँ जिसके दौरान बाकी की आवाज़ें मेरे जहन मे बुदबुदाहट सी करने लगती हैं।
कभी-कभी उन पराई आवाज़ों मे मैं अपने लिए कुछ खुशियाँ तलाश लेती हूँ तो कभी वही पराई आवाज़ें मुझे डरा भी देतीं है समझ नहीं आता कि में इन आवाज़ों से छुटकारा पाने के लिए कोई कडा कदम उठाऊ या फिर इन आवाज़ों को और प्यार दूँ।