" स्ट्राईकर "


हमारे बीच कुछ चीज़ें, सवाल, बातें और खेल कुछ हद तक हमारी रोज़मर्रा से समय को खींचते नज़र आते हैं। और वो खींचाव कहीं कहीं किसी पड़ाव की तलाश में घूम रहा होता है। कैसे कोई संसारिक मुहावरों में जीने लगता है और ज़िन्दगी के पहलूओं पर एक खास नज़र बनाता है कि इस बाग-दौड़ में जिया कैसे जाए?
अकसर हम ये महसूस करते है कि जिंदगी एक कतपुतली के खेल की तरह है उंगलियों के इशारे हम बखुबी समझते है लेकिन स्ट्राईकर इस भुमिका में जीकर भी दुनिया से ये सवाल नही कर पाता क्योंकि जीवित और निर्जिव का फर्क सोच पाने के पहलूओं को बाट देता है।

इसी
बात को ध्यान में रखकर स्ट्राईकर नाम की एक फिल्म बाज़ार में उतरी है जिसमे खेल के माध्यम से किसी रोज़मर्रा, जीवन और अस्तितव के कई रूपक देखने को मिले।
बात करते है स्ट्राईकर की जिसकी भूमिका समाज मे कई रूपों मे देखी जा सकती है-

किसी
सोच को आगे धकेलने की भावना लिए जिसमें वास्तविक रूप से आपका अपना रूझान और विश्वास नज़र अता है। बहस और इज़जत को एक-साथ जीते लोग अकसर इस स्ट्राईकर से खेलते नज़र आते है और ये खेल कई हद तक भावनात्मक रूप से हमको लालसा और मज़े के हवाले देता है।
जिसमें लिपटा हर एक पल कई रचनात्मक सोच को माहौल की बुनाई में रखता चला जाता है और जगह को, चहरों को, आते-जातों को मुस्कुराने के कई लम्हें दे जाता है


सैफू.

2 comments:

रश्मि प्रभा... March 13, 2010 at 10:22 PM  

bahut badhiyaa

Anonymous March 15, 2010 at 4:43 PM  

"क्योंकि जीवित और निर्जिव का फर्क सोच पाने के पहलूओं को बाट देता है।"

अपनी अगली और पहले लिखे हुए मैं अगर इस चीज़ को आगे लेकर जा पाओगे तो बहुत बड़ी दुनिया खुल पाएगी। हमारे आस-पास यह एक द्वंद है।
और दूसरा यह कि अगर यह फर्क हमारे बीच मौजूद है तो हम इसे कैसे दिखा सकते हैं और हम खुद इसे कैसे देखते हैं। क्या हमारे देखने के अंदाज मे भी यह सिर्फ एक फर्क है?

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