इश्तिहार


इश्तहारों की भीड़ में छपा मैं भी कई जगह
किसी ने सुबह देखा, किसी ने शाम
देखने वालों में बड़बड़ाया गया, दोहराया गया
नज़र अंदाज़ भी किया गया

जगह की छाप ने मुझे दिखाया हर जगह
खबरों की आड़ में, पेपर की ताड़ में लगे चहरों ने
मुझे सुनाया हर जगह।

मैं बोलने लगा, मैं बिकने लगा
मुझे खरीदा गया हर जगह
न देखी किसी ने शाम, न देखी सुबह
मुझे मुद्दा बनाकर बताया गया जगह-जगह

वो परेशान थे, वो नादान थे
लेकिन मुझे क्यूं गप्पेबाज़ी का ज़रिया बनाया गया हर जगह
रात का होता अंधेरा अकेला कर देता है मुझे
लेकिन अंधेरों में भी चिपकाया गया मुझे कई जगह

हादसो के शहर में गुम हो जाता है कोई जब
ढ़िंढ़ोरा मचाने वालों की भीड़ लगती है तब
मन-घड़त कहानियों में उतारा जाता है कोई
मैं मन ही मन कहता हूं लोगों से
क्यों भीड़ लगाते हो जगह-जगह


सैफू.

1 comments:

रश्मि प्रभा... March 4, 2010 at 8:02 PM  

हादसों के शहर में इश्तिहार बनना ........
वक़्त की फितरत होती है

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