चैलेंज

"भाई वसीम दो रुपय के सिक्के देना ।"

गैम की दुकान मे दखिल होने का यही तरीका था मेरा। यहां के वीड़ियो पार्लर में गैमों की भरमार है यहां तकरीबन 20 गैम की मशीने है जिसमें से 2 गैम एसे है जिसमें 999 तारीके के गैम खेल सकते है। पर मेरा मनपसन्द गैम एक ऐसा गैम है जिसमे दो लोग एक साथ चेलेंज कर सकते है और यही चेलेंज हमें जीतने और हारने जैसी प्रक्रिया मे रखता है ।
मुझ पर घर वालों का डंडा भी हैवी होने लगा था । रोज़ घर वालों की सुनता पर मानता अपने दिल की । रोज़-रोज़ दो-दो घंटो के लिये गायब रहता और जब घर वाले पुछते "कहा था ?"
तो बतोलेबाज़ी दे कर घुमा देता । पर डर लगता उनके होने के एहसास से जिसमे मे शामिल भी होने से कतराता था ।

एसी जगहें जिसमे कुछ करने की, कुछ सीखने की प्रक्रिया मे खोने के एहसास को लोग या समाज़ कुछ अलग बोली या नज़र से सम्बोधित करते है । पर वो समाज वो लोग दरासल में हमारे घर वाले ही होते है, जो इस समझ को बनाए बैठे हैं ।

: कि मेरा बच्चा सीखने जा भी रहा है तो गैम जिसका सीधा मतलब खेल होता है, किस के मां-बाप चाहते है कि उनका बच्चा पढ़ाई की उम्र में अपना ज्यादातर वक्त खेल मे लगाए...
लेकिन खेल ही तो है जो सबसे पहले घर वाले बच्चे को सिखाते है और बाद मे उसी से दूर भगाने की कोशिश...?
मेरा खुद से खेल को सीखना और मेरे घर वालों का किसी खेल को सीखाना दोनों किस संदर्भ मे अलग-अलग दिशाऐं देते हैं ?

सोच और गलत धारणा के साथ बच्चे कुछ सीखने के साथ-साथ कई अलग चीज़े भी सीख जाते है जिनकी उन्हे उम्मीद भी नही होती ।
पर मेरे साथ एसा नही था ! घर वाले कहते-कहते थक जाते मगर मैं बाज़ नही आता, उनके मना करने के बाद भी मैं गैम खेलने रोज़ पहुच जाता और उनके आने पर उस दुकान के किसी कौने मे छिप जाता... अब तो इतना हो गया था कि मेरे घर वाले जैसे ही आते तो गैम का मालिक( भाई वसीम )मुझे इशारे से पहले ही बता देते और कभी-कभी तो मम्मी को बाहर से ही मना कर देते कि "ऐबी तम्हारा बेटा यहां नही है ।"
अब मेरा घर से गैम और गैम से घर आना आसान हो गया था ।
जब कभी मम्मी पूछती : तू गैम मे से आया है ना ? तो मैं मना कर देता और साथ मे ये भी कहता

: भाई वसीम से पूछ लो जाकर अगर मैं झूट बोल रहा हूँ तो ?
वो मेरे ये बोलने से कभी भी वहां पुछने नही जाती थी ना जाने क्यू ?
वो मेरी बातों का यकिन था या कुछ और मुझे नही पता... पर उन्हे इतना तो मालूम था कि मै रोज़ गैम खेलने जाता हू ।
अब तो मम्मी ने भी मुझसे रोज़-रोज़ पुछना बन्द कर दिया था । पर कभी-कभी बाई-चांस पूछ लेती थी तो उनका पूछना और मेरा जा कर भी मना कर देना चालता रहता । मैं अपने गैम से खुश था इसलिए मै बतोलेबाज़ी का उस्ताद बन गया और घर वालो को घुमाता रहता अपनी बातों से ।

इस बीच मेरे गैम में काफी सुधार आ गया था और मेने गैम खेलने के काफी तरीकों को अपने ज़हन मे बिठा लिया था, मैं अपने बराबर या अपने हमउम्र लड़को का भी गैम ओवर कर दिया करता था , एक सिक्क़े मे रानी मिलाना और स्कोर बनाना मेरे दाए हाथ का खेल था। पर अब भी मैं भाई लईक से चेलेंज करने से डरता था, उनकी मोज़ूदगी में मैं अपने आप को कहीं छोटा सा महसुस करता था ।
उनके साथ ना खेलना मेरे लिए एक पहेली सा बन गया था जिसे समझ पाना मुशकिल सा लगता था। एक कोने मे खड़े होकर चुपचाप उनके गेम को देखता रहता था । यह देखना भी मुझे काफी कुछ सिखाता । इसी से मैं अनेक सीखने-सिखाने की छुआन को उस कोने मे खड़ा सीखता रहता ।

एक दिन भाई वसीम ने कह ही दिया कि : कब तक खड़ा रहेगा ? कभी तो खेलेगा ही ?
" चल सिक्का डाल ।" उन्होने यह कहकर मेरा सिक्का उस गैम मे डालवा दिया । मैं खुश नही था मुझे पता था कि मेरा सिक्का बेकार गया । यह अभी दो मिनट मे मेरा गेम ऑवर करके भागा देंगे मुझे। इनके सामने मेरा तो गेम ऑवर होना तो तय है । इन्ही को तो देख कर सिखा हु भाला केसे हरा पाऊंगा इन्है ? अब सिक्का डाल ही दिया है तो खेलना ही पड़ेगा ।
उस जगह थोड़ा चेलेंज स्वीकारा लिया मैंने और उनके साथ खेलने लगा ।

वो मेरे साथ मज़ाक से खेल रहे थे उनका उनका कहना था की मेरे तीन पिल्यरों को एक से ही मार देंगे । इसलिए वो मुझसे मज़ाक से खेल रहे थे । उनके मज़ाक के खेल से भी मैं जी-तोड़ मेहनत करके लड़ रहा था । पता नही मुझसे खेला क्यो नही जा रहा था। क्या ये सब उनका डर था या गैम ऑवर होने का ?


उनके दो पिल्यर मर गये थे और मेरा एक । उन्होने मेरा दूसरा पिल्यर भी बच्चे की तरह मार दिया । पर तीसरे पिल्यर से मैंने उनका पिल्यर मार दिया । मैं मन ही मन खुश था उस समय मैंने उनसे दूसरा सिक्का डालने को मना कर दिया ।
वो भी हसी मज़ाक करते हुऐ आपने घर चल दिये । मन ही मन मैं खुशी से भरा था की भाई लईक को घर चलता किया है मैंने। इस बात को मैं हफ्ते भर तक गाता रहा था भाई वसीम की दुकान में ।



मनोज.

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