छवि, जगह और सोच.

छवि...

जिसकी अपनी एक पहचान, नाम और अदा हो, जिसके होने और न होने से जगह और सोच को बोलने के तरीके मिलते हैं।
वो तरीके जो छवि की पहचान से जोड़ कर समाज में रखे जाते हैं कभी नसीहत तो कभी सीखने-सिखाने की बोलियों में...
छवि वो भारी शब्द है जो माहौल की रूपरेखा पर अपनी छाप छोड़ बयां करने और देखने के नज़रिये को बदलने की क्षमता रखता है जिसमें कभी आप बदले-बदले से लगते हो तो कभी आपकी शख्सियत और स्भाव....


जगह...

जो फैलते, सिकुड़ते आकार में नाप-तोल करके बोली या देखी जाती है, जिसके बया पर उसको किसी नाम से पुकारा जाता है... और वो बोले जाने वाले नाम जगह में अपने मतलब को तलाशते फिरते हैं किसी की आँखों मे, किसी की बातों में तो कभी वहां भटकते चहरों में कि आखिर ये बक़चौदियां क़्लब है कहां?
ये नाम किसी कैरम क़्लब को वहां के बड़बोलेपन की वज़ह से दिया गया है। जगह का मालिक इस जगह को नाम देता है फैंसी क़्लब पर वहां की रिज़मर्रा मे शरीक होने वालों का यहां कहना है कि किसी से भी पूछ लैना बक़चौदियां क़्लब कहां है? तो वो सीधा यही का पता देगा।
जगह और नज़रियें दोनों एक दूसरे से लड़ते नज़र आते हैं कभी देखा-देखी मे तो कभी कहा-सुनी में। जिसमें नज़रियां बदले या न बदले जगह बिना किसी बदलाव के नामों से बनी पहचान को बदलती रहती हैं।


सोच...


बोलने और संभलकर बोलने के बीच की समझ जो कि सोचकर बोलने की भाषा को तैयार करती है। और वही सोचकर बोलना ज़हन में जगह और छवियों को गाढ़ा करने के माद्दे को और गहरा कर देता है जिसमें हम कभी खोए-खोए से कहलाते हैं तो कभी अपने मे मगन से।
पर यही सोच शख्सियतों को जगह भी देती है तो कभी अपने में न होने का एहसास भी दिलाती है।...

"नंगा नहाएगा क्या और निचौड़ेगा क्या?"
ऐसे मुहावरे किसी सोच मे बहते है जिसमें हम अपनी बोली लाईनों में किस सोच को किसी की ओर फैंकते हैं उसको समझ या समझापाना कभी साफ तो कभी धुंधला सा लगता है।



सैफू.

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