जगहें ...

कई जगहें हमें अपने आप मे सिमटने और बहने के बहाने देती हैं, वो बहाने जो कभी हमारी आदत में शामिल हो जाते हैं तो कभी रोज़मर्रा की रूटीन में अपनी एक जगह बना लेते हैं। और उनका ये जगह बनाना हमें उस पर सोचने और बोलने के कई तरीके दे जाते हैं, वो तरीके जो कभी हम दोस्तों की मण्डलियों में बोलते नज़र आते हैं तो कभी किताबों मे लिखते।

क्योंकि हर जगह पहले वक़्त मांगती है फिर आपकी आदत और फिर उसके तरीकों की एक समझ कि यहां कब, कैसे और क्यूं?
और वहीं समझ हमारे शब्दों में उस जगह के लिए एक शब्द और जोड़ देती है, कभी
वाह-वाह में तो कभी टाइम-पास में कभी मस्ती में तो कभी दोस्ती और आदत में।
जगहें अपनी समझ, अपनी बातें, अपनी अच्छाई और बुराई सब को अपने ही शब्दों में समेटे रखती है। और उसका ये समेटना जगह को बढ़ोतरी के पाएदान पर चढ़ा देता है।

क्योकि यहां आने-जाने वालों की कमी को महसूस नहीं किया जाता जिसमे बाहर से आ रहे शब्द जो बाहर के ही रहते हैं और अंदर बोले जाने वाली बोली जो सिर्फ वहीं की हैं, उस जगह को एक अलग ही जगह बना देती है।

किसी को यहां आना अच्छा लगता है तो किसी ने अपने जीवन के 10-12 साल के कई घंटे यहां दिये हैं, कोई यहां चैम्पीयन है तो कोई सिखना चाहता है, कोई रोज़ की चाय का शौकिन है तो कोई ठियों पर खड़े होकर चाय पीने को ही मज़ेदारी मानता है। सब अपनी ही धुन में है पर ये धुन सिर्फ लड़कों तक ही सीमित है अब वो चाय के ठियें हो या दुकान, कैरम क़्लब हो या वीडियो गैम की दुकान या फिर जिम....

सब अपने-अपने तरोकों से जगह से जुड़ते हैं उसे अपनाते हैं, उठते-बैठते हैं, मज़े करते हैं, खेलते हैं या खड़े होते हैं सबको अपनी जगह, मिलने वाला माहौल और आदत या शौक़ से लगाव है जो कि उस जगह से जुड़ा है।


सैफू...

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