" भाई ताब का कैरम क्लब "

पुरानी दिल्ली की रंग वाली गली में।

यहां लोगों के आने के कई तरीके है मतलब सबके अपने-अपने मतलब जुड़े हैं इस जगह से। यहां कोई खेलने आता है तो कोई देखने, कोई मज़ाक करने तो कोई खेल की भावना में मगन चैलेन्ज देता हुआ पर जब यहां की भीड़ अपने रंग में होती है तो पुराने खिलाड़ियों की वही मण्डलियां जो ऊच-नीच को शर्तो के बल पर तय करतीं हैं। जो कहती हैं
"है दम तो जीत के दिखा पर शर्त लगा कर" उस वक्त खेल पर खिलाड़ियों का पैसा भी लगा होता है और इज्ज़त भी, इज्ज़त तो दूसरी निकली आवाज़ से वापस भी आ सकती है पर यहां पैसों का जेब बदलना चलता रहता है। जिसमें लगता है कि यहां हर कोई अपना रुतबा तय करने की होड़ में है, ऐसे में ये देखते चहरे कि "कौन जीतेगा" बड़े उत्साहित रहते हैं कि किसने, कब, क्या गलती की और वो अगली टन आने पर क्या कर सकता है, ये वहां खड़े बाकी लोग अनुमान लगाते और कुछ-कुछ बोलते नज़र आते।
यहां शर्तों के दाम 200 से 500 तक का सफर तय कर लेते हैं सिर्फ अपने अनुभव की बहस पर। बिना बहस तो कोई यहां 100-50 की भी शर्त नही लगाता।
पर बिना शर्तों में हार-जीत का मज़ा लेते कई लोग जगह में खेल देखने और खेलने का आकर्षण बन जाते हैं शुरुआती या कभी-कबार दिखते चहरों के लिए।


...सैफू...

" रहीस रॉकेट "

हर किसी माहौल में मिलावटी दुनिया की कल्पना करना और अपने आपसी सुझावों को सुलझाने की एक क्रिया जिसकी मौजूदगी हर बार, बार-बार महसूस होती है इस जगह में। हर कोई लड़ता, भागता, सिमटता नज़र आता है। अंकुरों की फुटकान के साथ जन्म लेते हैं निर्णय जिसे पनपने की एक जगह के रूप में संजोए रखने की कोशिश करती है यह जगह। कितनी जगहों के नेटवर्क को अपनी आपसी बातों में छोड़ जाते लोग, कुछ पाते कुछ खोते लोग, कभी समाचार केंद्र बन कर उभरते, कभी बातों-बातों में मदरसे की तालीम देते, कभी आपके और समाज के बनाए नियमों से लड़ते तो कभी सब आँखें मींच कर छोड़ देते समय पर और इन्तज़ार करते समय कटने का।
क़्लब, जिसकी लम्बाई-चौड़ाई लोगों के आगमन से सिमट सी गई है। दो बड़े कैरम से संजोया हुआ यह क़्लब 20 लोगों को अपने भीतर समेटने की क्षमता के साथ वहाँ अपना मुकाम जमाए खड़ा है।
रहीस नाम से जाना जाने वाला शख़्स चैम्प के ओहदे को समेट वहाँ अपनी मौज़ूदगी को रोज़मर्रा में बरकरार रख किसी के सामने खेलने बैठा है। जब उसका स्ट्राइकर गोटी से टकराता है तो गोटी रॉकेट की तरह अपना रास्ता बनाते हुए पॉकेट में चली जाती है। इसीलिए उसे रहीस रॉकेट के नाम से भी जाना जाता है।
हर मुलाक़ात में मेहमान और मेज़बान की भूमिका को निभाने की रीत छोड़ कर रहीस भाई अपने दोस्तों की मण्डली को महकाने और चमकाने का सारा बंदोबस्त अपनी दमदार आवाज़ के साथ तैयार कर इन रिश्तों की गाँठों को खोलते नज़र आते हैं। बड़ी आँखों के साथ खिलाड़ियों के जज़्बातों के साथ खेलने के अनुभव के कारण कभी तो हार जाते हैं तो कभी जीत कर बातों की लड़ियों को इकठ्ठा करके हारने वाले को जला-जला के भून डालते हैं।
ऐसी ही बातें जो बकवास या छोड़ू हैं वे इन्हें यहाँ का बकवासबाज़ी का बादशाह बनाए रखती हैं। इनका ज़ोरदार सलाम करने का अंदाज़ पूरे क़्लब का माहौल बदल देता है। ये अक्सर कुछ ऐसी बातें कहते रहते हैं जिसका किसी को पाता नहीं होता। इनका कहना है कि ये 17 साल की उम्र में दिल्ली चैम्प का ख़िताब हासिल कर चुके हैं, लेकिन इनकी छवि को देखकर तो नहीं लगता कि इन्होंने कभी चैम्प के ओहदे को स्वीकारा है पर खेल और खेल में निशानेबाज़ी इनको वहाँ का चैम्प बनाए रखती है। इनकी अदाएँ लोगों को सर फोड़ने और विवश होने पर मज़बूर कर देती हैं। लोगों का इनकी बातों को सुन हँस-हँसकर पेट में दर्द हो जाता है।
इस हल्ला-गुल्ला वाले माहौल में एक समय ऐसा भी आता है जिसमें सबकुछ शांत हो जाता है। वो मग़रिब की अज़ान का वक़्त होता है जिसमें सभी लोग चुप हो जाते हैं। गेम खेलना और पंखा बन्द कर दिया जाता है। वहाँ बैठे चहरे एक-दूसरे के चहरे के चुप होने के इंतज़ार में लगे दिखाई देते हैं।


...मनोज...

नज़रों से...

वो हमारी कालोनी में ही मंदिर के पास बने एक छोटे से कमरे में रहता है। उसका वो छोटा सा कमरा किसी इलेक्ट्रॉनिक कबाड़खाने से कम नहीं। उसने अपने कमरे में अपना एक कोना बना रखा है। चारदीवारी के बीच हर एक कोने में फैले पुराने रेडियो, घड़ियाँ, घंटे, अलार्म, कैमरे, पुराने वायर - कुछ ठीक तो कुछ ख़राब, जगह-जगह फैले खुले रेडियो के पुर्ज़े और उसके काम को अंजाम देने वाला हर वो सामान खुला पड़ा था, बिना किसी बॉक्स के।
उसकी इस चारदीवारी में कोई आलमारी नहीं है, बस एक टेबल है जो कोने में न होकर भी कोने में है। उस पर रखा था एक14 इंची टी.वी., जिसकी बंद मौजूदगी से मेरे दिमाग में यही चल रहा था कि "क्या ये टी.वी. ठीक होगा?" पर बात तो उस शख़्स की है जो 5फुट4-5 इंच का होगा। आँखों में हमेशा मेहनती नमी और कपड़े ज़्यादातर डार्क कलर के, चेहरा गोल और हाथों में ग्रीस जैसा कालापन - जो ये एहसास दिलाता है कि बन्दा मेहनती है।
वही कमरा उसके रहने की जगह है और वही खाने-पकाने की भी। वही उसका कारखाना है और वही चारदीवारी उसका माल इकठ्ठा करने का गोदाम।
वो हमेशा अपने कमरे में अकेला या दुकेला बैठा नज़र आता, कुछ न कुछ करता हुआ।
उसकी उम्र तो मुझे मालूम नहीं पर होगी यही कोई 30 के आस-पास की। वो अकेला ही रहता है। पता नहीं उसके माँ-बाप इस दुनिया में हैं भी या नहीं। आज तक मैंने उसे सिर्फ़ काम करते ही देखा है। कभी-कभार खाली दिखता है तो इतना खुश दिखता है मानो उसकी कोई लॉटरी लग गई हो। कभी उससे पूछने की हिम्मत नहीं हुई कि "भाई क्या हालचाल है?"
अक्सर वो बाहर नहीं दिखता। हाँ, कभी-कभी चाय पीने ज़रूर निकलता है। ऐसे में उससे मुलाक़ात होना मुश्किल सा था। पर कुछ वक़्त पहले उससे हुई एक मुलाक़ात ने मेरे कई सवालों की गुत्थी सुलझा दी, मसलन वो कितने समय से इस काम में अपने पैर जमाए हुए है? कबाड़ चुनने-खरीदने की नज़र उसने कितने समय में बनाई होगी? पुराना आलार्म कितने में खरीदता-बेचता होगा?
उसके कबाड़ को देखकर इस तरह के ढेरों सवाल मन में उठते थे पर एक सवाल का जवाब वो हर सण्डे कालोनी को देकर निकलता है कि उस कबाड़ का वो करता क्या है? दीवार घड़ियाँ, नये-पुराने रेडियो, ठीक चलती हुई हाथ घड़ियाँ, यहां तक कि वो कभी-कभी टी.वी. भी लेकर निकलता है। वो इतना सामान कबाड़ से कैसे ठीक कर लेता है?
सच में उसकी मेहनत या कहें उसके दिमाग का खेल है। वो जैसे ही एक बोरे में सारा सामान कंधे पर लादे कई गलियों से गुज़रता है, रास्ते में मिलने वाला शख़्स पूछने से नहीं चूकता-"आज कोई बढ़िया अलार्म है?”, “कोई अच्छी सी घड़ी है?”, "यार बोरा उतार, शायद कोई बढ़िया रेडियो मिल जाये?”
ऐसी लाइनों से होकर गुज़रता वो कई बार बोरे को कंधे से ऊपर -नीचे, उतारता-चढ़ाता, बाहर तक पहुँचता और किसी रिक्शे की ताक में खड़ा हो जाता।
जैसे ही कोई रिक्शा रुकता तो वो बोलता, "भाई चलना है इतवार बाज़ार"


...सैफ़ू...

माहौल और समाज

माहौल और समाज हमे हमेशा एक धुंध में रखता है जिसकी वजह से हम कभी कुछ नहीं देख पाते इसी में समय अपने आप को बदल इतिहास लिखता चला आ रहा है। वो इतिहास जो अभी के समय हमारे साथ है और बाद में किसी कागज़ के पन्ने का एक हिस्सा सा लगता है।
उसी मे बंधे लोग बाद या आने वाले इतिहास की रचना किये बिना ही फैसले लेने और समझने की एक अनमोल गाथा को लोगों को समझाते आ रहे हैं।
अपने अनुभव और अपनी समझ में बनाए एक आकार को लोगों के आगे पेश करके वो रचनात्मक तरीके से जी रहे हैं।
वो पेश करना आगे चल समाज की आवाज़ या समाज का ही एक रुप ले लोगों को अपनी बोलियों में इनकी परिभाषाएँ देता चला आ रहा है।
चाय की दुकान जिसकी हालत से मालूम होता है कि वो काफी पुरानी है पर उस पुरानेपन को सफेदी की चमक से अभी भी चम्का रखा है।

चाय की दुकान जिसमें चाय बनाने का एक बड़ा सा ठिया, जिस पर तीन बड़ी केतलियाँ जिसमें हमेशा चाय पत्ती का पानी उबलता रहता, कप और गिलास की एक लम्बी लाईन तकरीबन पन्द्रह जोड़े और बीच में एक नीली मटमेली शर्ट पहने एक ढ़ाड़ी वाला आदमी जो हमेशा ऑडर की चाय बनाकर देता।
उसी के बराबर में एक सफेद कुर्ता-पजामा पहने, सर पर टोपी लागाए हाथ में अखबार लिए कुर्सी पर बैठा आदमी जो सबके पैसे काटता है।
दो लोग और जो चाय को सर्व करने का काम करते हैं। जो तकरीबन एक बारह साल का लड़का और एक पच्चीस साल का आदमी है।


यहां लकड़ी की छ: टेबल है और बारह बेंच। हर एक टेबल पर 4 लोग आ जाते हैं। एक कोका-कोला की फ्रिज़ जो अब वक्त़ के हालात के साथ अपना रहन-सहन बदल चुकी है, जिसमें अब कप-गिलास के सेट वगैरह ही रखे जाते हैं।
उसी के बराबर में दूसरी टेबल पर बैठी एक औरत जो उस चाय की पुरानी दुकान में नई सी लग रही है। उसने नीला लाईट सुट पहन रखा है, रंग सांवला, चेहरा थोड़ा लम्बा, काली और छोटी आँखें, होटों पर सुर्ख गुलाबी रंग की लिप्सटिक, दांत गुटके खाकर पीले कर चुकी वो औरत आज समाज की नज़रों से लड़ रही है।
कोई उससे कुछ कहता नहीं पर हर कोई उसे आँखों-आँखों में नग़्न कर बैठा है।
और वो सब बातों से अन्जान न होते हुए भी अपनी चाय में मस्त है।

...मनोज...